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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१४४

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धिकार १४३ न . चरण से अनभिज्ञ थी। वह अपनो अँधेरो कोठरी से बहुत कम निकलतो, वहीं बैठो जप-तप किया करती थी। परलोभ-चिन्तन में उसे इहलोक को खार न थी, मन- इन्द्रियों ने बाहर की चेतना को शुन्य-सा कर दिया था। वह इस समय भी कोठरी के द्वार बन्द किये, देवो से अपने देश के कल्याण के लिए वन्दना कर रही थी कि सहसा उसके कानों में आवाज़ आई-यही द्रोही है, यही द्रोही है। उसने तुरन्त द्वार खोलकर बाहर की और मादा पासोनियस के कमरे से प्रकाश को रेखाएँ निकल रही थी, और उन्हीं रेखाओं पर संगीत की लहरें नाच रही थी। उसके पैर-तले से जमीन-सी निकल गई, कलेजा धक से हो गया। ईश्वर ! क्या मेरा बेटा ही देश-द्रोही है? आप हो आप, किसी अन्तःप्रेरणा से पराभूत होकर, वह चिल्ला उठो हो, यही देश-द्रोही है। () यूनानी स्त्री-पुरुष झुण्ड-के-झुण्ड उमड़ पड़े और पामोनियम के द्वार पर खड़े होकर चिल्लाने लगे--यही देश-द्रोही है। पासोनियस के कमरे की रोशनी ठडो हो गई थी, सगीत भी बन्द था। लेकिन द्वार पर प्रतिक्षण नगरवासियों का समूह बढ़ता जाता था और रह-रहकर सहस्रों कठो से ध्वनि निकलती थी- यही देश द्रोही है। लोगों ने मशालें जलाई, और अपने लाठी-डडे संभालकर मकान में घुस पड़े। कोई कहता था-सिर उतार लो। कोई कहता था-देवी के चरणों पर बलिदान कर दो। कुछ लंग उसे कोठे से नोच गिरा देने पर भाग्रह कर रहे थे। पासोनियस समझ गया कि अब मुसीयत को घड़ो सिर पर आ गई । तुरन्त मोने से उतरकर नीचे की ओर भागा और हों शरण को आशा न देखकर देवी के मन्दिर में जा घुसा लम क्या किया जाय । देवी की शरण जानेवाळे को भय दान मिल जाता था। परम्परा से यही प्रथा यो मन्दिर में किसी को हत्या करना महापार था। लेकिन ऐश द्रोदी को इतने सस्ते कौन छोड़ता । भाँति-भांति के प्रत्ताव दोने लगे- 'सुभर के हाथ पहनकर पहर सोच को।' ।