पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१४५

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१४४ मानसरोवर 'ऐसे देश-द्रोही का वध करने के लिए देवी हमें क्षमा कर देगी। 'देवी आप उसे क्यों नहीं निगल जातो?' 'पत्थरों से मारो, पत्थरों से ; आप निकलकर भागेगा।' 'निकलता क्यों नहीं रे कायर ! वहाँ क्या मुंह में कालिख लगाकर बैठा / > हुआ है।

रात-भर यही शोर मचा रहा और पासोनियस न निकला ! आखिर यह निश्चय हुआ कि मन्दिर की छत खोदकर फेंक दी जाय और पासोनियस दोपहर को तेज धूप और रात को कड़ाके की सरदी में आप-ही-आप अबढ़ जाय। बस फिर क्या था। आन-की-आन में लोगों ने मन्दिर को छत और कलस ढा दिये । अभागा पासोनियस दिन-भर तेज धूप में खड़ा रहा । उसे जोर की प्यास लगी, लेकिन पानी कहाँ ? भूख लगी, पर खाना कहाँ ? सारी जमोन तवे की भांति जलने लगी, लेकिन छोह कहाँ ? इतना कर उसे जीवन-भर में न हुआ था। मछली को भाँति तड़पता था और चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को पुकारता था, मगर वहाँ कोई उसकी पुकार सुननेवाला न था। बार-बार कसमें खाता था कि अब फिर मुझसे ऐसा अपराध न होगा। लेकिन कोई उपके निकट न आता था। बार-बार बाहता था कि' दीवार से सिर टकराकर प्राण दे दें, लेकिन यह आशा रोक देतो थी कि शायद लोगों को मुझ पर दया आ जाय । वह पागलों की तरह जोर-जोर से कहने लगा- मार डालो, मार डालो, एक क्षण में प्राण ले लो, इस भांति जला-अनाकर न मारो, ओ हत्यारो, तुमको जरा भी दया नहीं ! दिन बीता और रात-भयकर रात-आई। ऊपर तारागण चमक रहे थे, मानों उसको विपत्ति पर इस रहे हों। ज्यों-ज्यों रात भीगती थी, देवी विकराल रूप धारण करती जाती थीं। कभी वह उसकी ओर मुंह खोलकर लपकती, कभी उसे जलती हुई आँखों से देखती, उधर क्षण-क्षण सरदी बढ़ती जाती थी, पासोनियस के हाथ- पाव अकड़ने लगे, कलेमा काँपने लगा, घुटनों में सिर रखकर बैठ गया और अपनी किस्मत को रोने लगा ; करते को खीचकर कमी पैरों को छिपाता, कभी हाथों को। यहाँ तक कि इस खींचा-तानी में करता भी फट गया। आधी रात माते-जाते बर्फ गिरने लगी। दोपहर को उसने सोचा कि गरमी ही सबसे अधिक कष्टदायक है, पर इस ठण्ड के सामने उसे गरमी की तकलीफ भूल गई। ..