१५० मानसरोवर लिया और उसे लिये हुए सदर फाटक से निकला । विद्रोहियों ने एक विजय-वनि के साथ उनका स्वागत किया, पर सम-सब किसी गुप्त प्रेरणा के वश रास्ते से हर गये। दोनों चुपचाप तेहरान की गलियों में होते हुए चले जाते थे। चारों और अन्धकार था। दूकानें बन्द थीं। बाजारों में सन्नाटा छाया हुभा था। कोई घर से बाहर न निकलता था। कोरों ने भी मजिदों में पनाह ली थी। पर इन दोनों प्राणियों के लिए कोई आश्रय न था। नादिर की कमर तलवार थी, लैला के हाथ में डफ था। यही उनके विशाल ऐदर्य का विलुप्त चिह था ।। पूरा साल गुशार गया। लैजा और नादिर देश-विदेश की खाक छानते फिरते थे। -समरकन्द और बुखार, बगदाद और हलम, जाहरा और अदन, ये सारे देश उन्होंने छान बाले । लैला की डफ फिर जादू करने लगी, उसको आवाम सुनते ही शहर में हलचल मच जाती, आदमियों का मेला लग जाता, आव-भगत होने लगती। लेकिन ये दोनों यात्रो कहीं एक दिन से अधिक न ठहरते थे। न किसी से कुछ मांगते, न किसी के द्वार पर जाते । केवल रूसा-सूखा भोजन कर लेते और कभी किसी वृक्ष के नीचे, कभी किसी पर्वत को गुफा में और कभी सड़क के किनारे रात काट देते थे । संसार के कठोर व्यवहार ने उन्हें विरक्त कर दिया था, उसके प्रलोभन से कोसों भागते थे। उन्हें अनुभव हो गया था कि यहाँ जिसके लिए प्राण अर्पण कर दो, वही अपना शत्रु हो जाता है । जिसके साथ भलाई करो, वही बुराई पर कमर बांधता है , यहाँ किसी से दिल न लगाना चाहिए। उनके पास बड़े-बड़े रईयों के निमन्त्रण आते. उन्हें एक दिन अपना मेहमान मनाने के लिए लोग हजारों मिन्नतें करते, पर लैला किसी की न सुनती थी। नादिर को अब तक कभी-कभी बादशाहत को सनक सवार हो जाती, वह चाहता कि गुप्त रूप से शक्ति-संग्रह करके तेहरान पर बढ़ जाऊँ और बागियों को परास्त करके अक्षण्ड राज्य करु ; पर लैला की उदासीनता देखकर उसे किसो से मिलने-जुलने का साहस न होता था । लैला उसको प्राणेश्वरो थी, वह उसी के इशारों .. पर चलता था। उधर ईरान में भी-अराजकता फैली हुई थी। जनसत्ता से तंग आकर रईसों ने, भी फौज जमा कर ली थी और दोनों दलों में आये-दिन, संग्राम होता रहता था । --
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