सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लेला १५९ पूरा साल गुज़र गया और खेत न जुते, देश में भीषण अकाल पड़ा हुआ था ; व्यापार शिथिल था, खजाना खाली । दिन-दिन जनता को शक्ति घटतो जातो थी और रईसे घा जोर बढ़ता जाता था । आखिर यहाँ तक नौवत पहुँची कि जनता ने हथियार डाल दिये और रईस ने राज-भवन पर अपना अधिकार जमा लिया। प्रजा के नेताओं को फाँसी दे दो गई, कितने ही कैद कर लिये गये, और जनप्पत्ता का अन्त हो गया। शन्तिवादियों को शप नादिर की याद आई । यह बात अनुभवं से सिद्ध हो गई थी कि देश में प्रजातन्त्र स्थापित करने की क्षमता का अभाव है। प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण को जरूरत न थी । इस अवसर पर राजसत्ता हो देश का उद्धार कर सकती थी। यह भी मानी हुई बात थी कि लैला और नादिर जो जनसत्ता से विशेष प्रेम न होगा। वे सिहासन पर बैठकर भी रईसों हो के हाथ में कठ-पुतली बने रहेंगे, और रईसों को प्रज्ञा पर मनमाने अत्याचार करने का अवसर मिलेगा। अतएव आपस में लोगों ने सलाह की और प्रतिनिधि नादिर को मना लाने के लिए रवाना हुए। (c) सन्ध्या का समय था । लैला और नादिर दमिश्क में एक वृक्ष के नीचे पैठे थे। आकाश पर लालिमा छाई हुई थी, और उससे मिली हुई पर्वतमालाओं को श्याम देखा ऐसी मालूम हो रही थी मानों कमल-दल मुरझा गया हो । लैला उल्लसित नेत्रों से प्रकृत की यह शोभा देख रही थी। नादिर मलिन और चिन्तित भाव से लेटा हुआ सामने के सुदूर प्रान्त की गोर वषित नेत्रों से देख रहा था, मानों इस जोवन से ता आ गया है। सहसा बहुत दर गर्द उपती हुई दिखाई दो, और एक क्षण में ऐसा मालूम हुआ कि कुछ आदमी घोहों पर सवार चले आ रहे हैं। नादिर उठ बैठा और गोर मे देखने लगा कि ये कौन आदमी हैं। अकस्मात् वह उठकर खड़ा हो गया। उसका मुख-मण्डल दीपक की भांति चमक उठा, जर्जर शरीर में एक विचित्र स्फूर्ति दौड़ गई। वह उत्सुकता से बोला-लैला, ये तो ईरान के आदमी हैं ; कलामे-पाक को क्रसम, ये ईशन के आदमी हैं। इनके लिवास से.साफ जाहिर हो रहा है। लैला ने भी उन यात्रियों बी ओर देखा और सचिन्त होकर बलो- अपनी तलवार सँभात लो, शायद उसको जरूरत पड़े।