पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६३ - भटकता फिरा, यहां तक कि रात हो गई और साथियों का पता न चला । घर लौटने का रास्ता भी न जानता था। आखिर खुदा का नाम लेकर एक तरफ चला कि कहीं तो कोई गाव या यस्तो का निशान मिलेगा। वहाँ रात-भर पड़ा रहूँगा। सवेरे लौट पाऊँगा। चलते-चलते जल के दूसरे सिरे पर उसे एक गाँव नजर आया, जिसमें मुश्किल से तीन-चार घर होंगे। हो, एक मसजिद मलबत्ता बनी हुई थी। मसजिद में एक दीपक टिमटिमा रहा था, पर किसी आदमी या भादमाद का निशान न था। आधी रात से ज्यादा बीत चुकी थी, इसलिए किसी को कर देना भी उचित न था। नादिर ने घोड़े को एक पेड़ से बांध दिया और उसो मसजिद में रात काटने को ठानी। वहाँ एक फटी सी चटाई पड़ो हुई थी। उसो पर लेट गया। दिन-भर का पका था, लेटते हो नींद आ गई। मालूम नहीं वह कितनी देर तक सोता रहा, पर किसी की आहट पाठर चौंका तो क्या देखता है कि एक बूढ़ा आदमो बैठा नमाज पढ़ रहा है। नादिर को आश्चर्य हुणा कि इतनी रात गये कौन नमाज पढ़ रहा है। उसे यह खबर हो न थी कि रात गुजर गई और यह प्रजिर की नमाज़ है पड़ा-पड़ा देखता रहा। वृद्ध पुरुष ने नमाज अदा की, फिर वह छाती के सामने सञ्जलि फैलाकर खुदा से दुआ मांगने लगा। दुआ के शब्द सुनकर नादिर का खून सर्द हो गया। वह दुआ उसके राज्यकाल को एसो तीव्र, ऐसी वास्तविक, ऐसी शिक्षाप्रद आलोचना थी, जो आज तक किसी ने न की थी। उसे अपने जीवन में अपना अपयश सुनने का अवसर प्राप्त हुभा । वह यह तो जानता था कि मेरा शासन आदर्श नहीं है, लेकिन उसने कभी यह कल्पना न की थी कि प्रजा की विपत्ति इतनी असह्य हो गई है। दुआ यह थो- 'ऐ खुक्षा । तू ही गरीबों का मददगार और बेकतों का सहारा है । तु इस जालिम बादशाह के जुलम देखता है और तेरा कहर उस पर नहीं गिरता ! यह बेदीन काफिर एक हसीन औरत की मुहब्बत में अपने को इतना भूल गया है कि न थांखों से देखता है, न कानों से सुनता है। अगर देखता है तो उसी औरत की भांखों से, सुनता है तो उसी औरत के कानों से। अष यह मुसोबत नहीं सही जाती। या तो तू उस मालिम को जहन्नुम पहुँचा दे, या हम बेकसों को दुनिया से उठा ले। ईरान उसके जुल्म से तझ आ गया है और तू हो उसके सिर से इस पलों को टाल सकता है।' बूढे ने तो अपनी छड़ी संभाली और चलता हुआ, लेकिन नादिर मृतक की लाति नहीं पड़ा रहा, मानों उस पर बिजली गिर पड़ी हो।