१६४ मानसरोवर . मैं ( १० ) एक सप्ताह तक नादिर दरबार में न आया, न किसी कर्मचारी को अपने पास आने की आज्ञा दी। दिन-के दिन अन्दर पहा सोचा करता कि क्या करूँ । नाम- मात्र को कुछ खा लेता। लैला बार-बार उसके पास जाती और कभी उसका सिद अपनी जांच पर रखकर, कभी उसके गले में बाहे डाळकर पूटती-तुम क्यों इतने उदास और मलिन हो ? नादिर उसे देखकर रोने लगता, पर मुंह से कुछ न कहता। यश या लैंला, यही उसके सामने कठिन समस्या थी। उसके हृदय में भीषण द्वन्द्व मचा रहता और वह कुछ निश्चय न कर सकता था। यश प्याश था, पर लेला उससे भी प्यारी थो। वह बदनाम होकर जिन्दा रह सकता था, पर लैला के बिना वह जीवन की कल्पना ही न कर सकता था । लैग उसके रोम-रोम में व्याप्त थी। अन्त को उसने निश्चय कर लिया- लैला मेरी है, मैं लैला का हूँ। न मैं उससे अलग, न वह मुझसे जुदा । जो कुछ वह करती है, मेरा है, जो कुछ करता हूँ, उसका है। यहाँ मेरा और तेरा का भेद ही कहाँ ? बादशाहत नस्वर है, प्रेम अमर । हम अनन्त-काल तक एक दूसरे के पहलू में बैठे हुए स्वर्ग के सुख भोगेंगे, हमारा प्रेम अनन्त-काल तफ आकाश में तारे की भांति चमकेगा। नादिर प्रसन होकर उठा। उसका मुख-मण्डल विजय की लालिमा से रजित हो रहा था। आंखों से शौर्य टपका पड़ता था। वह लैला के प्रेम का प्याला पोने जा रहा था, जिसे एक सप्ताह से उसने मुंह नहीं लगाया था। उसका हृदय उसी उमङ्ग से उछला पश्ता था, बो आज से पांच साल पहले उठा करती थी। प्रेम का फूल कभी नहीं मुरझाता, प्रेम की नदी कभी नहीं उतरती। लेकिन लैला के आरामगाह के द्वार चन्द थे और उसका डफ, जो द्वार पर नित्य एक षटी से लटका रहता था, गायब था। नादिर का कलेला सन्म से हो गया ।। बन्द रहने का भाशय तो यह हो सकता था कि लैला बाग में होगी, लेकिन हम गया ? सम्भव है, वह डफ लेकर बाग में गई हो, लेकिन यह उदासी क्यों छाई है यह हसरत क्यों बरस रही है? नादिर ने कांपते हुए हाथों से द्वार खोल दिया। तेला अन्दर न थी। पलंग हुआ था, शमा जल रही थी, वजू का पानी रखा हुआ था! नादिर के पांव थर्रारे को क्या रौसा रात को भी नहीं सोई ? कमरे को एक-एक वस्तु में सैला की याद
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