सौभाग्य के कोड़े लड़के क्या अमीर के हो, क्या गरीब के, विनोदशील हुआ ही करते हैं । उनको वचन्ता बहुधा उनकी दशा और स्थिति को परवा नहाँ काती। नथुवा के मा बाप दोनों मर चुके थे, अनाथों की भांति वह पाय सोलानाथ के द्वार पर पड़ा रहता था। रोपसाहप क्ष्याशील पुरुष थे। कभी-कभी उसे एक-आधा पैसा दे देते, खाने को भी घर में इतना जूठा मचता था कि ऐसे-ऐसे कई अनाथ अफर सकते थे, पहनने को भो उनके लड़कों के उतारे मिल जाते थे, इसलिए नथुवा भनाथ होने पर भी दुःखी नहीं था। रायसाहब ने उसे एक ईसाई के पंजे से छुनाया था। इन्हें इसको परवा न हुई कि मिशन में उसकी शिक्षा होगी, आराम से रहेगा; उन्हें यह मजूर था कि यह हिन्द रहे । अपने घर के जूठे भोजन को वह मिशन के भोजन से कहीं पवित्र समझते थे। उनके कमरों की सफाई मिशन पाठशाला को पढ़ाई से कहाँ बढ़कर थी। हिन्द रहे, चाहे जिस दशा में रहे। ईसाई हुआ तो फिर सदा के लिए हाथ से निकल गया । नथुवा को बस रायसाहब के बंगले में झाडू लगा देने के सिवाय और कोई काम न था। भोजन करके खेलता फिरता था । कर्मानुशार हो उसको वर्ण-व्यवस्था भी हो , गई । घर के अन्य नौकर-चाकर उसे भंगो कहते थे और नथुवा को इसमें कोई एत- राशन होता था । नाम का स्थिति पर क्या असर पड़ सकता है इसकी उस गरीब को कुछ खवर न थी। भगो बनने में कुछ हानि भो त थी। उसे झाडू देते समय कभी पैसे पड़े मिल जाते, कभी कोई और चोख। इससे वह सिगरेट लिया करता था। नौकरों के साथ उठने-बैठने से उसे बचपन हो में तम्बाकू, सिगरेट, पान का चस्का पर गया था। रायपाहब के घर में यों तो बालकों और बालिकाओं को कमो न थी, दरजनों भांजे-भतीजे पड़े रहते थे, पर उनको निज को सन्तान केवल एज पुत्री थी, जिसका नाम एना था। ना को पढ़ाने को दो मास्टर थे, एक मेमसाहब अंगरेजो पढ़ाने आया करती थी। रायसाहब को यह हार्दिक अभिलाषा थी कि रत्ना सर्वगुण-आगरो हो और जिस घर में जाय उसको लक्ष्मी बने । वह उसे अन्य मालंकों के साथ न रहने देते थे। ,
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