शतरण के सलाड़ो प्रसन्न होते हैं। यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-से-बड़े कायर भी आँस बहावे हैं। अवध के विशाल देश का नवाव बन्दी बना चला जाता था, और लखनऊ ऐश की नीद में मस्त था। यह राजनीतिक अघ.पतन की चरम सीमा थी। मिरजा ने कहा- हुजूर नवाबसाहब को जालिमों ने कैद कर लिया है। मीर-होगा, यह लीजिए शह। मिरजा-जनाब, परा ठहरिए। इस वक्त इधर तबियत नहीं लगती। बेचारे नवापसाहव इस वक्त खून के आंसू रो रहे होंगे। मोर-रोया हो चाहें। यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा। यह किश्त । मिरजा-किसो के दिन बराबर नहीं जाते। कितनो दर्दनाक हालत है। मौर-हाँ ; सो तो है ही -यह लो फिर किश्त ! बप, अब को किश्त में मात है, बच नहीं सकते। मिरजा-खुदा को कसम, आप बड़े बेदर्द हैं। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दु.ख नहीं होता हाय, गरोय वाजिदअली शाह । मर-पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवावसाहब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और मात ! लाना हाथ ! बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गई। उनके जाते हो मिरजा ने फिर बाजी बिछा दी । हार की चोट बुरी होती है। मोर ने कहा-आइए, नवाब साहब के मातम में एक मरसिया कह डालें। लेकिन मिरजा को राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी। वह हार का बदला चुकाने के लिए अघोर हो रहे थे। शाम हो गई। खंडहर में चमगादडों ने चोखना शुरू किया। अनावोलें आ. आकर अपने अपने घोसों में चिमटी। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे, मानों दो खून के प्यासे सरमा आपस में लड़ रहे हो। मिरजाजो तीन बानियां लगातार हार चुके थे। इस चौथो बाजी का रंग भी अच्छा न था। वह बार-मार जीतने का दृढ़ निश्चय करके संभलकर खेलते थे, लेकिन एक न एक चाल ऐसो बेढब आ पड़तो थी, जिससे बाभी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और भी उप्र होती जाती थी। उधर मौरसाहा मारे उमग के गज़लें गाते थे, चुट- कियां लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हो । मिरजाजी सुन सुनकर झुमालाते पौर
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