पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२८७

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मानसरावर उठे तो शरीर मुरदा-सा जान पड़ता था। खड़े होते थे, तो आँखें तिलमिलाने लगतो थो, सिर में चक्कर आ जाता था। पेट में जैसे कोई बैठा हुआ कुरेद रहा हो । सहक को तरफ आंखें लगी हुई थी कि लोग मनाने तो नहीं पा रहे हैं। सध्योपान का समय इसी प्रतीक्षा में कट गया। इस समय पूजन के पश्चात् नित्य नाश्ता दिया करते थे। भाज अभी मुँह में पानी भी न गया था। न जाने वह शुभ घड़ो का आयेगो। फिर पडिताइन पर क्रोध आने लगा । आप तो रात को भर पेट खाकर सोई होगी, इस वक भी जल-पान कर हो चुकी होगी, पर इधर भूलकर भी न मां का कि मरे या जोते है। कुछ बात करने हो के बहाने से क्या थोड़ा-सा मोहनभोग बनाकर न ला सक्ती थों ? पर किसे इतनी चिंता है ? रुपये लेकर रख लिये, फिर जो कुछ मिलेगा वह भी रख लेंगी । मुझे अच्छा उल्ल बनाया । किस्सा-कोताह पण्डितजी नं दिन-भर इ तजार किया ; पर कोई मनानेवाला नजर ज आया। लोगों के दिल में जो यह सदेह पैदा हुआ था कि पण्डितजी ने कुछ ले-देकर यह स्वांग रचा है, स्वार्थ के वशीभूत होकर यह पाखड खड़ा किया है, यही उनको मनाने में बाधक होता था। रात के ९ बज गये थे। सेठ भौमल ने, जो व्यापारी समाज के नेता थे, निश्व- यात्मक भाव से कहा-मान लिया, पण्डितजी ने स्वार्थवश ही यह अनुष्ठान किया है; पर इससे वह कष्ट तो कम नहीं हो सकता, जो अन्न-जल के बिना प्राणीमात्र को होता है। यह धर्म विरुद्ध है कि एक ब्रह्मण हमारे कार दाना-पानो त्याग दे और हम पेट भर-भरकर चैन को नींद सोवें। अगर उन्होंने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, तो उसका दड उन्हें भोगना पड़ेगा। हम क्यो अपने कर्तव्य से मुंह फेरें ? कांग्रेस के मन्त्री ने दबी हुई आवाज से कहा-मुझे तो ज, कुछ कहना था, वह मैं कह चुका। आप लोग सामज के नेता हैं, जो फसला कोजिए, हमें मंजूर है । चलिए, मैं भी आपके साथ चला चलूंगा । धर्म का कुछ अश मुझे भी मिल जायगा । पर एक विनती सुन लीजिए-आप लोग पहले मुझे वहाँ जाने दीजिए । मैं एकांत में उनसे दस मिनट बात करना चाहता हूँ। आप लोग फाटक पर खड़े रहिएगा। जब मैं वहां से लौट आऊँ, तो फिर बाइएगा।' इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी ? प्रार्थना स्वीकृत हो गई।