भाड़े का टटू
आगरा कालेज के मैदान में च्या समय दो युवक हाथ से हाथ मिलाये टहल
रहे थे। एक का नाम यशवत था, दूसरे का रमेश । यशवत डोल-डौल का ऊँचा
और बलिष्ठ था। उसके मुख पर संयम और स्वास्थ्य की कान्ति झलकतो भी । रमेश
छोटे कद भौर इकहरे बदन का, तेज-हीन और दुर्घल आदमी था। दोनों में किसो
विषय पर बहस हो रही थी।
यशवंत ने कहा-मैं आत्मा के आगे धन का कुछ मूल्य नहीं समझता ।
रमेश बोला-बड़ी खुशी की बात है।
बशर्षत- हाँ, देख लेना। तुम ताना मार रहे हो, लेकिन मैं दिखला दूंगा कि
धन को फितना तुच्छ समझता हूँ
रमेश-सैर, दिखला देना । मैं तो धन को तुच्छ नहीं समझता। धन के लिए
मान १५ वर्ष से किता चाट रहा हूँ; धन के लिए मां-बाप, भाई-बन्द सबसे अलग
यहाँ पड़ा हूँ; न जाने अभी कितनी सलामियां देनी पड़ेंगो, कितनी खुशामद करनी
पड़ेगी। क्या इसमें आत्मा का पतन न होगा ? मैं तो इतने ऊँचे आदर्श का पालन
नहीं कर सकता। यहाँ तो अगर किसी मुकदमे में अच्छो रिश्वत पा जाय तो शायद
छोड़ न सकें। क्या तुम छोड़ दोगे ?
यशवत-मैं उसकी और आँख उठाकर भी न देखू गा, और मुझे विश्वास है
कि तुम जितने नोच बनते हो, उतने नहीं हो।
रमेश-मैं उससे कहीं नोच हूँ, जितना कहता हूँ।
यशवत-मुझे तो यकीन नहीं आता कि स्वार्थ के लिए तुम किसी को नुकसान
पहुँचा सकोगे।
रमेश-भाई, संसार में आदर्श का निर्वाह केवळ संन्यासो ही कर सकता है; मैं
तो नहीं कर सकता । मैं तो समझता हूँ कि अगर तुम्हें धका देकर तुमसे बाजो जोत
स, तो तुम्हें जकर गिरा दूंगा। और, बुरा न मानो तो कह दूँ, तुम भी मुझे
अर गिरा दोगे। स्वार्थ का त्याग करना कठिन है।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२९१
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