पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२९३

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मानसरोवर ( ३ ) दस साल गुजर गये । यशवंत दिलोजान से काम करता था, और उसके अफसर उससे बहुत प्रसन्न थे। पर अफसर जितने प्रसन्न थे, मातहत उतने ही अप्रसन्न रहते थे। वह खुद जितनी मेहनत करता था, मातहतों से भी उतनी हो मेहनत लेना चाहता था, खुद जितना बेलौस था, मातहतों को भी उतना ही बेलौस बनाना चाहता था । ऐसे आदमी बड़े कारगुज़ार समझे जाते हैं। यशवत की कारगुजारी का अफसरे पर सिका जमता जाता था। पांच वर्षों में ही वह जिले का जज बना दिया गया। रमेश इतना भाग्यशाली न था । वह जिस इजलास में वकालत करने जाता, वहीं असफल रहता । हाकिम को नियत समय पर आने में देर हो जाती, ता खुद भी चल देता, और फिर बुलाने से भी न आता। कहता-अगर हाकिम वक्त की पापन्दो नहीं करता, तो मैं क्या करूँ ? मुझे क्या परत पड़ी है कि घटे उनके इजलास पर खड़ा उनकी राह देखा करूँ ? बहस इतनी निर्भीकता से करता कि खुशामद के आदी हुकाम की निगाहे। में उसकी निर्भीकता गुस्ताखी मालूम हेती। सहनशीलता उसे छू नहीं गई थी। हाकिम हो या दूसरे पक्ष का वकील, जो उसके मुंह लगता, उग्री को खबर लेता था। यहाँ तक कि एक बार वह विला जज ही से लड़ बैठा। फल यह हुआ कि उसकी सनद छीन ली गई। किन्तु मुवक्किलों के हृदय में उसका सम्मान ज्यों-का-त्यों रहा। तब उसने आगरा-कालेज में शिक्षक का पद प्राप्त कर लिया। किन्तु यहाँ भी दुर्भाग्य ने साथ न छोड़ा प्रिसिपल से पहले ही दिन खटपट हो गई। प्रिंसिपल का सिवांत यह था कि विद्यार्थियों को राजनीति से अलग रहन चाहिए । वह अपने कालेज के किसी छात्र को किसी राजनीतिक जलसे में शरोक न होने देते। रमेश पहले हो दिन से इस आज्ञा का खुल्लमखुल्ला विरोध करने लगा। उसका कथन था कि अगर किसी को राजनीतिक बलसे में शामिल होना चाहिए, तो विद्यार्थी को। यह भी उसको शिक्षा का एक अंग है। अन्य देशों में छात्रों ने युगांतर उपस्थित कर दिया है, तो इस देश में क्यों उनकी प्रमान बंद की जाती है। इसका फल यह हुआ कि साल खतम होने के पहले ही रमेश को इस्तीफा देना पड़ा । कितु विद्यार्थियों पर उसका दबाव तिल-भर भी कम न हुआ। इस भौति कुछ तो अपने स्वभाव और कुछ परिस्थितियों ने रमेश को मार मार-