२९४ मानसरोवर . की निरपुशता बढ़ती थी, त्यो त्यो उसका भी श बढ़ता जाता था। रोज कहीं-न- कहाँ व्याख्यान देता और उसके प्रायः सभी व्याख्यान विद्रोहात्मक भावों से भरे होते थे। स्पष्ट और खरी बातें कहना ही विद्रोह है। अगर किसी का राजनीतिक भाषण विद्रोहात्मक नहीं माना गया, तो समझ लो, उसने अपने आन्तरिक भावों को गुप्त रखा है। उर.के दिल में जो कुछ है, उसे जान पर लाने का साहस उपमें नहीं है, रमेश ने मनोभावों को गुप्त रसना सीखा ही न था। प्रजा का नेता बनकर जेल और फांसी से डरता क्या । जो आफ़त आनी हो, आवे। वह सब कुछ सहने को तैयार बैठा था। अधिकारियों की आँखों में भी वही सबसे ज्यादा गड़ा हुआ था। एक दिन यशवंत ने रमेश को अपने यहां बुला भेजा। रमेश के जी में तो भाया कि कह दे, तुम्हें आते क्या शरम आती है ? आखिर हो तो गुलाम ही। लेकिन फिर कुछ सोचकर कहला भेजा, कल शाम को आऊँगा। दूसरे दिन वह ठीक ६ बजे यशवत के बंगले पर जा पहुंचा। उपने किसी से इसका जिम न किया। कुछ तो यह ख्याल था कि कोग कहेंगे, मैं अफसरों को खुशामद करता हूँ और कुछ पह कि शायद इससे यशक्त को कोई हानि पहुंचे। वह यशवत के अँगले पर पहुंचा, तो चिशय जल चुके थे। यशवंत ने आकर उसे गले से लगा लिया। आधी रात तक दोनों मित्रों में यूब बातें होती रहीं। पशवत ने इतने दिनों में नौकरी के जो अनुभव प्राप्त किये थे, सब क्यान दिये। रमेश को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि यशवंत के राजनीतिक विचार कितने विषयों में मेरे विचारों से भी ज्यादा स्वतन्त्र हैं। उसका यह ख्याल बिलकुल गलत निकला कि वह बिलकुल बदल गया होगा, वफादारी के राग अलापता होगा। रमेश ने कहा- भले आदमी, जब इतना जले हुए हो, तो छोड़ क्यों नहीं देते नौकरी ? और कुछ न सहो, अपनी आत्मा को रक्षा तो कर सकोगे। यशवंत-मेरो चिन्ता पीछे करना, इस समय अपनी चिन्ता करो। मैंने तुम्हें सावधान करने को बुलाया है। इस वक सरकार को नहर में तुम बेतरह खटक रहे हो। मुझे भय है कि तुम कहीं पकड़े न जाओ। रमेश-इसके लिए तो तैयार बैठा हूँ। अशत-माहिर भाग में कूदने से लाभ हो क्या ? .
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