उद्धार
हिन्दू समाज को वैवाहिक प्रथा इतनी दषित, इतनी चिन्ताजनक, इतनी भयंकर
हो गई है कि कुछ समझ में नहीं आता, उसका सुधार क्योंकर हो। विरले ही ऐसे
माता-पिता होंगे जिनके सात पुत्रों के बाद भी एक कन्या उत्पन्न हो जाय तो वह
सहर्ष उसका स्वागत करें । कन्या का जन्म होते ही उसके विवाह को चिन्ता सिर पर
सवार हो जाती है और आदमी उसी में डुबछिया खाने लगता है। अवस्था इतनी
निराशामय और भयानक हो गई है कि ऐसे माता-पिताओं की कमी नहीं है जो कन्या
की मृत्यु पर हृदय से प्रसन्न होते हैं, मानों शिरसे आधा टलो। इसका कारण केवल
यही है कि दहेज की दर, दिन-दूनी रात-चौगुनो, पावस काल के जल-वेग के समान
मढ़ती चली जा रही है। जहाँ दहेज को सेकड़ों में बातें होती थीं, वहाँ अब हजारों
तक नौयत पहुँच गई है। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि एक या दो हजार रुपये
दहेज केवल बढ़े घरों को वात थो, छोटो-मटो शादियां पांच सौ से एक हजार तक
से हो जाती थीं। पर अब मामूलो-मामूली विवाह भो तीन-चार हजार के नीचे नहीं
तय होते। खर्च का तो यह हाल है और शिक्षित समान की निर्धनता और दरिद्रता
दिनों-दिन बढ़ती जाती है। इसका अन्त क्या होगा, ईश्वर हो जाने। बेटे एक दरजन
भी हो तो माता-पिता को चिन्ता नहीं होती। वह अपने ऊपर उनके विवाह-भार को
अनिवार्य नहीं समझता, यह उसके लिए Compulsory विषय नहीं Optional
विषय है । होगा तो कर देंगे नहीं कह देंगे-बेटा, खाओ-कमाओ, समाई हो तो
विवाह कर लेना। वेटों की फुचरित्रता कलक को बात नहीं समझी जातो; लेकिन
कन्या का विवाह तो करना ही पड़ेगा, उससे भागकर कहाँ पायेंगे ? अगर विवाह में
विलम्ब हुआ और कन्या के पाव कहीं ऊँचे-नीचे पड़ गये तो फिर कुटुम् को नाक
कट गई, वह पतित हो गया, टाट बाहर कर दिया गया। अगर वह इस दुर्घटना को
सफलता के साथ गुप्त रख सका तप तो कोई बात नहीं, उसको कलकित करने का
किसी को साहस नहीं, लेकिन अभाग्यवश यदि वह इसे छि॥ न सका, भटा-फाई हो
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साँचा:सही
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/३८
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