मानसरोवर गया तो फिर माता-पिता के लिए, भाई-बन्धुओं के लिए संसार में मुंह दिखाने को स्थान नहीं रहता। कोई अपमान इससे दुस्सह, कोई विपत्ति इससे भीषण नहीं। किसी भी व्याधि की इससे भयंकर कल्पना नहीं की जा सकती। लुत्फ तो यह है कि जो लोग बेटियों के विवाह की टिनाइयों को भोग चुके होते हैं वहो अपने बेटों के विवाह के अवसर पर बिलकुल भूल जाते हैं कि हमें कितनी ठोकरें खानी पड़ी थी, जरा भी सहानुभूति नहीं प्रकट करते, बल्कि कन्या के विवाह में जो तावान उठाया था उसे चक्रवृद्धि ब्याज के साथ बेटे के विवाह में वसूल करने पर कटिबद्ध हो जाते हैं। कितने ही माता-पिता इसी चिन्ता में घुल-धुकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, कोई संन्यास ग्रहण कर लेता है, कोई बूढ़े के गळे कन्या को महकर अपना गला छुड़ाता है, पात्र कुपात्र के विचार करने का मौका कहाँ, ठेलमठेल है। मुन्शी गुलजारीलाल ऐसे ही हतमागे पिताओं में थे। यो उनको स्थिति बुरी न थी, दो-ढाई सौ रुपये महीने वकालत से पीट लेते थे, पर खानदानी आदमी थे, उदार हृदय, बहुत किफ़ायत करने पर भी माकूल बचत न हो सकती थी। सम्पन्धियों का आदर-सत्कार न करें तो नहीं बनता, मित्रों की खातिरदारी न करें तो नही बनता, फिर ईश्वर के दिये हुए दो-तीन पुत्र थे, उनका पालन-पोषण, शिक्षण का भार था, क्या करते। पहली कन्या का विवाह उन्माने अपनी हैसियत के अनुसार अच्छी तरह किया, पर दूसरी पुत्री का विवाह टेढ़ी खीर हो रहा था। यह आवश्यक था कि विवाह अच्छे घराने में हो, अन्यथा लोग हैं। गे; और अच्छे घराने के लिए कम-से-कम पाँच हजार का तखमीना था। उधर पुत्री सयानी होतो जाती थी। वही भनाज जो लड़के खाते थे, वह भी खाती थी, लेकिन लड़कों को देखो तो जैसे सूखे का रोग लगा हो और लरकी शुक्ल पक्ष का चाँद हो रही थी। बहुत दौड़ धूप, करने पर बेचारे को एक लड़का मिला। बाप आबकारी के विभाग में ४००) का नौकर था, लड़का भो सुशिक्षित ; स्त्री से आकर बोले, लड़का तो मिला और घर-बार एक भी काटने योग्य नहीं, पर कटिनाई यही है कि लड़का कहता है, मैं अपना विवाह ही न करूंगा। बाप ने कितना सममाया, मैंने कितना समझाया, औरों ने भी समझाया, पर वह रस से मस नहीं होता। कहता है, मैं कभी विवाह न करूँगा। समझ में नहीं भाता, विमाह से क्यों इतनी घृणा करता है। कोई कारण नहीं बतलाता, बस यही कहता है, मेरी इच्छा ! मां-बाप का एकलौता लड़का है, उनकी परम इच्छा है कि इसका विवाह N
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