सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४४ मानसरोवर के अग्नि-कुण्ड में डाले देते हैं। यह माता-पिता हैं ? कदापि नहीं। यह लड़की के शत्रु हैं, कमाई है, वधिक हैं, हत्यारे हैं। क्या इनके लिए कोई दण्ड नहीं ? जो जान-बुझकर अपनी प्रिय सन्तान के खून से अपने हाथ रंगते हैं, उनके लिए कोई दण्ड नहीं ? समाज भी उन्हें दण्ड नहीं देता। कोई कुछ नहीं कहता। हाय ! यह सोचकर हजारीलाल उठा और एक ओर चुपचाप चला। उसके मुख पर तेज छाया हुआ था। उसने आत्म-बलिदान से इस कष्ट को निवारण करने का दृढ़ संघरुप कर लिया था। उसे मृत्यु का लेशमात्र भी भय न था। वह उस दशा को पहुंच गया था जब सारी आशाएं मृत्यु हो पर अवलम्बित हो जाती हैं। उस दिन से फिर किसी ने हजारीलाल की सूरत नहीं देखी। मालूम नहीं, जमीन खा गई या आसमान । नदियों में जाल डाळे गये, कुओं में बाँस पड़ गये, पुलोस में हुलिया लिखाया गया, समाचार-पत्रों में विज्ञप्ति निकाली गई, पर कहीं पता नचला। कई हफ्तों के बाद, छावनी रेलवे स्टेशन से एक मील पश्चिम को और सड़क पर कुछ हड्डियां मिलीं। लोगों का अनुमान हुआ कि हज़ारीलाल ने गाड़ी के नीचे दलकर जान दे दी । पर निश्चित रूप से कुछ न मालूम हुआ । ( ४ ) भादों का महीना था और तीज का दिन । घरों में सफाई हो रही थी। सौभाग्य- वती रमणियाँ सोलहाँ शृङ्गार किये गगा-स्नान करने जा रही थी। अम्बा स्नान करके लौट आई थो और तुलसी के कच्चे चबूतरे के सामने खड़ी वन्दना कर रही थी। पतिगृह में उसे यह पहली ही तोज थी, बड़ो उमगों से व्रत रखा था। सहसा उसके पति ने अन्दर आकर उसे सहास नेत्रों से देखा और बोला-मुशी दरबारीलाल तुम्हारे कौन होते हैं, यह उनके यहाँ से तुम्हारे लिए तोज को पठोनी आई है। अभी डाकिया दे गया है। यह कहकर उसने एक पारसल चारपाई पर रख दिया। दरबारोलाक का नाम सुनते ही अम्बा की आँखें सजल हो गई। वह लपकी हुई आई और पारसल को हाथ में लेकर देखने लगी, पर उसकी हिम्मत न पड़ी कि उसे खोले । पिछली स्मृतियां जीवित हो गई, हृदय में इज़ारीलाल के प्रति श्रद्धा का एक उद्गार-सा उठ पड़ा। -आह ! यह उसी देवात्मा के आत्म-बलिदान का पुनीत फल है कि मुझे यह दिन ।