पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/५२

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निर्वासन यही सोच रहा हूँ। तुक जानतो हो, मुझे समान का भय नहीं है। छूत-विवार को मैंने पहले ही तिलाञ्जलि दे दो, देवी-देवताओं को पहले हो विदा कर चुका, पर जिस स्री पर दूसरी निगाहें पड़ चुकों, जो एक सप्ताह तक न जाने कहां और किस दशा में रही उसे अंगीकार करना मेरे लिए असम्भव है। अगर यह अन्याय है तो ईश्वर का ओर से है, मेरा दोष नहीं। मर्यादा-मेरी विवशता पर आपको परा मो दया नहीं भातो ? परशुराम-जहाँ घृणा है वहाँ दया कहाँ ! मैं अब भो तुम्हारा भरष-पोषण करने को तैयार हूँ। जब तक जिऊँगा, तुम्हें अन्न-वस्त्र का कष्ट न होगा। पर अब तुम मेरो स्त्री नहीं हो सस्तो। मर्यादा-मैं अपने पुत्र का मुँह न देखू अगर किसो ने मुझे स्पर्श मो किया हो। परशुराम-तुम्हारा किसी अन्य पुरुष के साथ क्षण भर भो एकान्त में रहना तुम्हारे पातिव्रत को नष्ट करने के लिए बहुत है। यह विचित्र बन्धन है, रहे तो जन्म- जन्मान्तर तक रहे, टूटे तो क्षण भर में दी जाय । तुम्हों बताओ, किसो मुसलमान ने जबरदस्ती मुझे अपना उच्छिष्ट भोजन खिला दिया होता तो तुम मुझे स्वोधार करतो मर्यादा-वह...वह तो दूसरी बात है। परशुराम-नहीं, एक ही बात है। जहां भावों का सम्बन्ध है वहाँ तर्क और न्याय से काम नहीं चलता । यहाँ तक कि अगर कोई कह दे कि तुम्हारे पानी को मेहतर ने छू लिया है तब भी उसे ग्रहण करने से तुम्हें घृणा आयेगो। अपने हो दिल से सोचो कि मैं तुम्हारे साथ न्याय का रहा हूँ या अन्याय ? मर्यादा-मैं तुम्हारी छु? हुई चीजे न खातो, तुमसे पृथक् रहती, पर तुम्हें घर से तो न निकाल सकती थो । मुझे इसो लिए न दुत्कार रहे हो कि तुम पर के स्वामो हो ओर समझते हो कि मैं इसका पालन करता हूँ। परशुराम-यह बात नहीं है । मैं इतना नीच नहीं हूँ। मर्यादा-तो तुम्हारा यह अन्तिम निश्चय है ? परशुराम-हा, अन्तिम ! मर्यादा-जानते हो इसका परिणाम क्या होगा'