को अभागिनी, दुनिया समझे और एक टुकड़ा रोटो खाकर पो रहूँ। ऐसा क्यों करूं ? ससार मुझे जो चाहे समझे, मैं अपने को अभागिनी नहीं समझती । मैं अपने मात्म- सम्मान की रक्षा आर कर सकती हूँ। मैं इसे अपना घोर अपमान समझती हूँ कि 'पग-पग पर मुझ पर शका को जाय, नित्य कोई चरवाहों की भौति मेरे पीछे लाठो लिये घूमता रहे कि किसी के खेत में न जा पहुँ। यह दशा मेरे लिए अपत्य है । यह कहकर कैलासकुमारी वहां से चली गई कि कहीं मुंह से अनर्गळ शब्द न निकल पड़ें। इधर कुछ दिनों से उसे अस्नो वेकसो का यथार्थ ज्ञान होने लगा था। स्त्री पुरुष की कितनी अधोन है, मानो स्त्री को विधाता ने इसी लिए बनाया है कि पुरुषों के अधीन रहे। यह सोचकर वह समाज के अत्याचार पर दांत पीसने लाती थी। पाठशाला तो दूसरे ही दिन से बन्द हो गई, किन्तु उसी दिन से कैलासकुमारी को पुरुषों से जलन होने लगो। जिस सुख-भोग से प्रारब्ध हमें वचित कर देता है, उससे हमें द्वेष हो जाता है । गरीब आदमी इसी लिए तो अमीरों से पलता है और धन की निन्दा करता है। केलासी बार-बार झुंझलाती कि स्त्रो क्यों पुरुष पर इतनी अवलम्पित है ? पुरुष क्यों स्त्री के भाग्य का विधायक है ? स्त्रो क्यों नित्य पुरुषों का आश्रय चाहे, उनका मुँह ताके ? इसी लिए न कि स्त्रियों में अभिमान नहीं है, आत्म- सम्मान नहीं है । नारी हृदय के कोमल भाव, उसे कुत्ते का दुम हिलाना मालूम होने लगे। प्रेम कैसा ? यह सब ढोग है । स्त्री पुरुष के अधीन है, उसकी खुशामद न करे, सेवा न करे, तो उसका निर्वाह कैसे हो। एक दिन उसने अपने बाल गूंथे और जूड़े में एक गुलाब का फूल लगा लिया। मां ने देखा तो ओठ से जीभ दवा ली। महरियों ने छाती पर हाथ रखे। इसी तरह उसने एक दिन रगीन रेशमी साड़ी पहन ली। पड़ोसिनों में इस पर । खूब आलोचनाएँ हुई। उसने एकादशी का व्रत रखना छोड़ दिया जो पिछले ८ बरसों से रखती आई यो । कघी और आईने को वह अब त्याज्य न समझतो थी। सहालग के दिन भाये । नित्य प्रति उसके द्वार पर से बरात निकलती। मुहल्ले को स्त्रियां अपनी-अपनी अठारियों पर खड़ी होकर देखती । वर के रंग-रूप, आकार- प्रकार पर टोलाएँ होती, जागेश्वरो से भी बिना एक आंख देखे न रहा जाता । लेकिन
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