खुचड़ बाबू कुंदनलाल कचहरी से लौटे, तो देखा कि उनकी पत्नीजी एक कुंजडिन से कुछ शाक भाजी ले रही हैं । कुजडिन पालक टके सेर कहती है, वह डेढ पैसे दे रही हैं । इस पर कई मिनट विवाद होता रहा। आखिर कुंजडिन डेढ़ ही पैसे पर राजी हो गई। अब तराजू और बोट का प्रश्न छिड़ा । दोनों पल्ले बराबर न थे । एक में सघा था । बाट भी पूरे न उतरते थे । पड़ोसिन के घर से सेर आया । साग तुल जाने के बाद अब घाटे का प्रश्न उठा । पत्नीजी और मांगती थीं, कुंजड़िन कहती थी, अब क्या सेर-दो- सेर घाटे में ही ले लोगी बहूजी । खैर, श्राध घटे में यह सौदा पूरा हुआ, और कुजडिन, फिर कभी न आने की धमकी देकर, बिदा हुई । कुदनलाल खड़े खड़े यह तमाशा देखते रहे। कुँ जड़िन के जाने के बाद पत्नीजी लोटे का पानी लाई, तो आपने कहा -अाज तो तुमने ज़रा-सा साग लेने में पूरे अाध घटे लगा दिये । इतनी देर मे तो हज़ार-पांच सौ का सौदा हो जाता। ज़रा-ज़रा-से साग के लिए इतनी ठाय-ठाय करते तुम्हारा सिर भी नहीं 3 दुखता। रामेश्वरी ने कुछ लज्जित होकर कहा-पैसे मुफ्त में तो नहीं श्रावे ! 'यह ठीक है । लेकिन समय का भी कुछ मूल्य है। इतनी देर में तुमने बड़ी मुश्किल से एक धेले की बचत की। कुजडिन ने भी दिल मे कहा होगा, कहाँ को गॅवारिन है । अब शायद भूलकर भी इधर न आये।' 'तो फिर मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि पैसे की जगह धेले का सौदा लेकर बैठ जाऊँ। 'इतनी देर में तो तुमने कम से-कम २० पन्ने पढ़े होते। कल महरी से घटों सिर मारा । परसो दूधवाले के साथ घटों शास्त्रार्थ किया। जिंदगी क्या इन्हीं बातों में खर्च करने को दी गई है । कुदनलाल प्रायः नित्य ही पत्नी को सदुपदेश देते रहते थे। यह उनका
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