१०४ मानसरोवर दूसरा विवाह था। रामेश्वरी को आये अभी दो ही तीन महीने हुए थे ।अब तक तो बड़ी ननदजी ऊपर के काम किया करती थीं। रामेश्वरी की उनसे न पटी । उसको मालूम होता था, यह तो मेरा सर्वस्व ही लुटाये देती हैं । आख़िर वह चली गई। तब से रामेश्वरी ही घर की स्वामिनी है। वह बहुत चाहती है कि पति को प्रसन्न रखे। उनके इशारों पर चलती है ; एक बार जो बात सुन लेती है, गांठ बांध लेती है। पर रोज़ ही तो कोई न कोई नई बात हो जाती है, और कु दनलाल की उसे उपदेश देने का अवसर मिल जाता है। ( २ ) एक दिन बिल्ली दूध पी गई। रामेश्वरी दूध गर्म करके लाई, और स्वामी के सिरहाने रखकर पान बना रही थी कि बिल्ली ने दूध पर अपना ईश्वरदत्त अधिकार सिद्ध कर दिया। रामेश्वरी यह अपहरण स्वीकार न कर सकी। रूल लेकर बिल्ली को इतने जोर से मारा कि वह दो-तीन लुड़कियां खा गई। कुदनलाल लेटे-लेटे अखबार पढ़ रहे थे। बोले-और जो मर जाती ? रामेश्वरी ने ढिठाई के साथ कहा-तो मेरा दूध क्यों पी गई ? 'उसे मारने से दूध मिल तो नहीं गया ? 'जव कोई नुकसान कर देता है, तो उस पर क्रोध आता ही है।' 'न आना चाहिए। पशु के साथ आदमी भी क्यों पशु हो जाय ? आदमी और पशु मे इसके सिवा और क्या अतर है।' कुंदनलाल कई मिनट तक दया, विवेक और शाति की शिक्षा देते रहे, यहाँ तक कि बेचारी रामे धरी मारे ग्लानि के रो पड़ी। इसी भांति एक दिन रामेश्वरी ने एक भिन्तुक को दुत्कार दिया, तो बाबू साहब ने फिर उपदेश देना शुरू किया। बोले--तुमसे न उठा जाता हो, तो लामो मैं दे पाऊँ । गरीब को यो न दुत्कारना चाहिए। रामेश्वरी ने त्योरियां चढ़ाते हुए कहा-दिन-भर तो तांता लगा रहता है। कोई कहाँ तक दौड़े। सारा देश भिखमगो ही से भर गया है शायद । कुंदनलाल ने उपेक्षा के भाव से मुस्कराकर कहा-उसी देश में तो तुम भी बसती हो!
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