११० मानसरोवर महरी द्वार पर खड़ी यह विवाद सुन रही थी। जब उसने देखा कि कुंदनलाल का क्रोध बढता ही जाता है, और मेरे कारण रामेश्वरी को घुड- कियां सुननी पड़ रही हैं, तो वह सामने जाकर बोली-बाबूजी, अब तो कसूर हो गया। आप सब रुपये मेरी तलब से काट लीजिए । रुपये नहीं हैं, नहीं तो अभी लाकर आपके हाथ पर रख देती। रामेश्वरी ने उसे धुड़ककर कहा-जा भाग यहाँ से, तू क्या करने आई ? बड़ी रुपयावाली बनी है ! कुदनलाल ने पत्नी की ओर कठोर नेत्रो से देखकर कहा--तुम क्यो उसकी वकालत कर रही हो ? यह मोटी-सी बात है, और इसे एक बच्चा भी समझता है कि जो नुकसान करता है, उसे उसका दंड भोगना पड़ता है मै क्यों पांच रुपये का नुकसान उठाऊँ ? वजह १ क्यो नहीं इसने मटके को सँभालकर पकड़ा, क्यों इननी जल्दबाज़ी की, क्यों तुम्हें बुलाकर मदद नहीं ली ? यह साफ इसकी लापरवाही है। यह कहते हुए कुदनलाल बाहर चले गये। रामेश्वरी इस अपमान से आहत हो उठी। डाँटना ही था, तो कमरे में बुलाकर एकात मे डाँटते । महरी के सामने उसे रूई की तरह तूम डाला। उसकी समझ ही में न आता था, यह किस स्वभाव के आदमी हैं । आज एक बात कहते हैं, कल उसी को काटते हैं, जैसे कोई झक्की आदमी हो । कहाँ तो दया और उदारता के अवतार बनते थे, कहाँ श्राज पांच रुपये के लिए प्राण देने लगे। बड़ा मज़ा आ जाय, जो कल महरी बैठ रहे । कभी तो इनके मुख से प्रसन्नता का एक शब्द निकला होता! अब मुझे भी अपना स्वभाव बदलना पड़ेगा ! यह सब मेरे सीधे होने का फल है। ज्यों-ज्यों में तरह देती हूँ, आप जामे से बाहर होते हैं । इसका इलाज यही है कि एक कहे, तो दो सुनाऊँ। आखिर कब तक और कहाँ तक सहूँ। कोई हद भी है । जव देखो डाँट रहे हैं। जिसके मिजाज का कुछ पता ही न हो, उसे कौन खुश रख सकता है । उस दिन ज़रा-सा बिल्ली को मार दिया, तो आप दया का उपदेश करने लगे । आज वह दया कहाँ गई। इनको ठीक करने का उपाय यही है कि
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