पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/११०

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खुचड़ ११२ समझ लूँ, कोई कुत्ता भूक रहा है। नहीं, ऐसा क्यों करूँ। अपने मन से कोई काम ही न करूँ, जो यह कहें, वही करूँ, न जौ-भर कम न जौ-भर ज्यादा । जब इन्हे मेरा कोई काम पसद ही नहीं आता, तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो बरबस अपनी टांग अड़ाऊँ । बस, यही ठीक है। वह रात-भर इसी उधेड़-बुन में पड़ी रही। सबेरे कु दनलाल नदी स्नान करने गये । लौटे, तो नौ बज गये थे। घर मे जाकर देखा, तो चौका-बर्तन न हुआ था । प्राण सूख गये। पूछा-क्या महरी नही आई ? रामे०-नहीं। कु दन०-तो फिर १ रामे०-जो श्रापकी आज्ञा। कु दन०-यह तो बड़ी मुश्किल है। रामे०- हाँ, है तो। कु दन- -पडोस की महरी को क्यों न बुला लिया ? रामेछ--किसके हुक्म से बुलाती। अब हुक्म हुप्रा है, बुलाये लेती हूँ। अब बुलाबोगी, तो खाना कब बनेगा ! नौ बज गये हैं । इतना तो तुम्हें अपनी अक्ल से काम लेना चाहिए था कि महरी नहीं आई तो पड़ोसवाली को बुला ले। रामे० -- अगर उस वक्त, सरकार पूछते, क्यों दूसरी मारी बुलाई, तो क्या जवाब देती ? अपनी अक्ल से काम लेना छोड़ दिया। अब तुम्हारी अक्ल ही से काम लूंगी। मैं यह नहीं चाहती कि कोई मुझे आँखे दिखाये । कु दन०--अच्छा तो इस वक्त क्या होता है ? रामे०-~-जो, हुजूर का हुक्म हो । कु दन०--तुम मुझे बनाती हो ? रामे -मेरी इतनी मजाल कि आप को बनाऊँ ! मै तो हुजूर की लौड़ी, हूँ । जो कहिए, वह कलें। कु दैन मैं तो जाता हूँ, तुम्हारा जो जी चाहे करो। रामेल-जाइए, मेरा जी कुछ न चाहेगा और न कुछ करूँगी। कु दन०-आखिर तुम क्या खायोगी ? कु --