पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१११

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“२१२ मानसरोवर राम० -जो श्राप दे देगे, वही खा लूंगी। कुदन०--लाओ, बाजार से पूड़ियाँ ला हूँ। रामेश्वरी रुपया निकाल लाई । कुदनलाल पूड़ियाँ लाये। इस वक्त का काम चला । दफ्तर गये । लौटे, तो देर हो गई थी। श्राते-ही-आते पूछा- -महरी आई? रामे०--नही। कुदन०-- --मैंने कहा था, पड़ोसवाली को बुला लेना। रामे०-बुलाया था। वह पांच रुपये मांगती है । कु दन०--तो एक ही रुपये का तो फ़र्क था, क्यों नहीं रख लिया ? रामेo-मुझे यह हुक्म न मिला था । मुझसे जवाब-तलब होता कि एक -रुपया ज्यादा क्यों दे दिया, ख़र्च की किफ़ायत पर उपदेश दिया जाने लगता, तो क्या करती। कुदन०--तुम बिलकुल मुर्ख हो । रामे०-बिलकुल । कुदन०-तो इस वक्त भी भोजन न बनेगा ? रामे०---मजबूरी है। कुदनलाल सिर थामकर चारपाई पर बैठ गये। यह तो नई विपत्ति गले पड़ी। पूड़ियाँ उन्हें रुचती न थी। जी मे बहुत अँझलाये । रामेश्वरी को दो चार उल्टी-सीधी सुनाई ; लेकिन उसने मानों सुना ही नहीं । कुछ बस न चला, तो महरी की तलाश मे निकले । जिसके यहाँ गये, मालूम हुआ, महरी काम करने चली गई । आख़िर एक कहार मिला। उसे बुला लाये । कहार ने दो आने लिये और बर्तन धोकर चलता बना। रामेश्वरी ने कहा-भोजन क्या बनेगा ! कुदन-रोटी-तरकारी बना लो, या इसमें भी कुछ आपत्ति है । रामे०-तरकारी घर में नहीं है ? कुंदन-दिन-भर बैठी रही, तरकारी भी न लेते बनी ? अब इतनी रात गये तरकारी कहाँ मिलेगी?