पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१२२

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आगा-पीछा १२३ भगतराम विवाह के प्रश्न को जरूर छेड़ेगा। श्रद्धा प्रतीक्षा की मूर्ति बनी हुई यो । उसका एक-एक अग मानो सौ-सौ तार होकर प्रतिध्वनित हो रहा था। दिल पर एक नशा छाया हुआ था, पांव जमीन पर न पड़ते थे । भगतराम को देखते ही मा से बोली--अम्मा, अब हमको एक हल्का-सा मोटर ले दीजिएगा। कोकिला ने मुस्कराकर कहा--हल्का-सा क्यों ? भारी-सा तो लेना पहले कोई अच्छा सा मकान तो ठीक कर लो। श्रद्धा भगतराम को अपने कमरे मे बुला ले गई। दोनों बैठकर नये मकान की सजावट के मनसूबे बाँधने लगे। परदे, फर्श, तस्वीरे, सबकी व्यवस्था की गई । श्रद्धा ने कहा-रुपये भी अम्माजी से ले लेगे । भगतराम बोना--उनसे रुपये लेते मुझे शर्म आयेगी। श्रद्धा ने मुस्कराकर कहा-आखिर मेरे दहेज के रुपये तो देगी। दोनों घटे भर बाते करते रहे । मगर वह मार्मिक शब्द, जिसे सुनने के लिए श्रद्धा का मन आतुर हो रहा था, आज भी भगतराम के मुँह से न निकला और वह बिदा हो गया। उसके चले जाने पर कोकिला ने डरते-डरते पूछा-आज क्या बात हुई ? श्रद्धा ने उसका श्राशय समझकर कहा-अगर मैं ऐसी भारी हो रही हूँ, तो कुएँ में क्यों नहीं डाल देती ! यह कहते-कहते उसके धैर्य की दीवार टूट गई। वह अावेश और वह वेदना, जो भीतर-ही भीतर अब तक टीस रही थी, निकल पड़ी । वह फूट फूट- कर रोने लगी। कोकिला ने मुझलाकर कहा--जब कुछ बातचीत ही नहीं करनी है तो रोज़ आते ही क्यो हैं ? कोई ऐसा बड़ा घराना भी तो नहीं है, और न ऐसे धन्ना-सेठ ही हैं। श्रद्धा ने आँख पोंछकर कहा--अम्माजी, मेरे सामने उन्हे कुछ न कहिए । उनके दिल मे जो कुछ है, वह मैं जानती हूँ। वह मुंह से चाहे कुछ न कहें; मगर दिल से कह चुके । और मैं चाहे कानों से कुछ न सुनें; पर दिल से सब कुछ सुन चुकी।