पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१२७

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१२८ मानसरोवर लेकिन दोनों अपनी बातों पर अड़े रहे। बार-बार यही कहते रहे कि अगर यह ब्याह होगा, तो हम दोनों तुमपर अपनी जान दे देगे। उन्हें मेरी मौत मजूर है , लेकिन तुम मेरे हृदय की रानी बनो, यह मंजूर नहीं। श्रद्धा ने सात्वना देते हुए कहा-प्यारे, मुझसे उनका घृणा करना उचित है । पढ़े-लिखे आदमियो में ही ऐसे कितने निकलेगे। इसमे उनका कोई दोष नही। मैं सबेरे उनके दर्शन करने जाऊँगी, शायद मुझे देखकर उनका दिल पिघल जाय । मैं हर तरह से उनकी सेवा करूँगी, उनकी धोतियाँ धोऊँगी, उनके पैर दाबा करूँगी, मैं वह सब करूँगी, जो उनकी मनचाही बहू करती । इसमें लज्ला की कौन बात । उनके तलवे सहलाऊँगी,-भजन गाकर सुनाऊँगी-मुझे बहुत से दिहाती गीत पाते हैं। अम्माजी के सिर के सफेद बाल चुनूंगी । मैं दया नहीं चाहती, मैं तो प्रेम की चेरी हूँ। तुम्हारे लिए मैं सब कुछ करूँगी-सब कुछ। भगतराम को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसकी आँखो की ज्योति बढ़ गई है, अथवा शरीर में कोई दूसरी ज्योतिर्मय आत्मा आ गई है। उसके हृदय का सारा अनुराग, सारा विश्वास, सारी भक्ति आँखों से उमड़ श्रद्धा के पैरो की ओर जाती हुई मालूम हुई, मानो किसी घर से नन्हें नन्हे लाल, कपोलवाले, रेशमी कपड़ोंवाले, घुघराले बालोवाले बच्चे हॅसते हुए निकल- कर खेलने जा रहे हों। ( ७ ) चौधरी और चौधराइन को शहर आये हुए दो सप्ताह बीत गये। वे रोज़ जाने के लिए कमर कसते ; लेकिन फिर रह जाते। श्रद्धा उन्हें जाने न देती । सबेरे जब उनकी आँखें खुलती, तो श्रद्धा उनके स्नान के लिए पानी तपाती हुई होती, चौधरी को अपना हुक्का भरा हुआ मिलता। वे लोग ज्यों ही नहाकर उठते, श्रद्धा उनकी धोती छाटने लगती । दोनों उसकी सेवा और अविरत परिश्रम देखकर दग रह जाते। ऐसी सुंदर, ऐसी मधुरभाषिणी, ऐसी हँसमुख, और चतुर रमणी, चौधरी ने इसपेक्टर साहब के घर मे भी न देखी थी। चौधरी को वह देवी मालूम होती-और चौधराइन को लक्ष्मी । दोनों श्रद्धा की सेवा, और अटल प्रेम पर आश्चर्य करते थे ; किन्तु तो भी