१३२ मानसरोवर विभीषिका की छाप थी। उसके दोनों नेत्रो से आंसू बहकर गालो पर ठुलक रहे थे, मानों अपूर्ण इच्छा का अतिम सदेश निर्दय ससार को सुना रहे हों। जीवन का कितना वेदना-पूर्ण दृश्य था--आसू की दो बूं दे ! अब चौधरी घबराये । तुरत ही कोकिला को खबर दी। एक आदमी डाक्टर के पास भेजा। डाक्टर के आने मे तो देर थी-बह भगतराम के मित्रों मे से थे ; किंतु कोकिला और श्रद्धा आदमी के साथ ही आ पहुंची। श्रद्धा भगतराम के सामने आकर खड़ी हो गई। आँखों से आंसू बहने लगे। थोड़ी देर मे भगतराम ने आँखे खोली और श्रद्धा की ओर देखकर बोले- तुम आ गई श्रद्धा, मैं तुम्हारी ही राह देख रहा था । यह अतिम प्यार लो। आज ही सब 'श्रागा-पीछा' का अत हो जायगा, जो अाज से तीन वर्ष पूर्व श्रारभ हुआ था। इन तीन वर्षों में मुझे जो अात्मिक यत्रणा मिली है, हृदय ही जानता है । तुम वफ़ा की देवी हो; लेकिन मुझे रह रहकर यह भ्रम होता था, क्या तुम खून के असर का नाश कर सकती हो ? क्या तुम एक ही बार अपनी परपरा की रीति छोड़ सकोगी ? क्या तुम जन्म के प्राकृतिक नियमो को तोड़ सकोगी ? इन भ्रम पूर्ण विचारों के लिए शोक न करना । मैं तुम्हारे योग्य न था-किसी प्रकार भी, और कभी भी तुम्हारे जैसा महान् हृदय न बन सका। हाँ, इस भ्रम के वश मे पड़कर संसार से मैं अपनी इच्छाएँ विना पूर्ण किये ही जा रहा हूँ। तुम्हारे अगाध, निष्कपट, निर्मल प्रम की स्मृति सदैव ही मेरे साथ रहेगी। किंतु हाय अफसोस... कहते-कहते भगतराम की आँखें फिर बद हो गई। श्रद्धा के मुख पर गाढ़ी लालिमा दौड़ गई। उसके श्रासू सूख गये । झुकी हुई गरदन तन गई। माथे पर बल पड़ गये। आँखो में आत्म-अभिमान की झलक या गई । वह क्षण-भर वहां खड़ी रही और दूसरे ही क्षण नीचे आकर अपनी गाड़ी में बैठ गई । कोकिला उसके पीछे-पीछे दौड़ी हुई आई और बोली-वेटी, यह क्रोध करने का अवसर नहीं है । लोग अपने दिल में क्या कहेंगे। उनकी दशा बरा- बर बिगड़ती ही जाती है । तुम्हारे रहने से बुड्ढों को ढाढ़स बंधा रहेगा। श्रद्धा ने कुछ उत्तर न दिया। कोचनान से कहा-घर चलो। हारकर कोकिला भी गाड़ी में बैठ गई।
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