पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१३२

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आगा-पीछा १३३ असह्य शीत पड रहा था। प्राकाश मे काले बादल छाये हुए थे। शीतल वायु चल रही थी । माघ के अतिम दिवस थे । वृक्ष, पेड-पौधे भी शीत से अकडे थे। दिन के आठ बज गये थे, अभी तक लोग रज़ाई के भीतर मुंह लपेटे हुए लेटे थे । लेकिन श्रद्धा का शरीर पसीने से भीगा हुआ था । ऐसा मालूम होता था कि सूर्य की सारी उष्णता उसके शरीर की रगों में घुस गई है । उसके होठ सूख गये थे, प्यास से नहीं, आतरिक धधकती हुई अग्नि की लपटों से | उसका एक-एक अग उस अग्नि की भीषण आंच से जला जा रहा था। उसके मुख से बार-बार जलती हुई गर्म सांस निकल रही थी, मानो किसी चूल्हे की लपट हो । घर पहुंचते-पहुंचते उसका फूल-सा मुख मलीन हो गया, होठ पीले पड़ गये, जैसे किसी काले ने डस लिया हो । कोकिला बार- बार श्रद्धापूर्ण नेत्रो से उसी की ओर ताकती थी ; पर क्या कहे और क्या कहकर समझाये। घर पहुँचकर श्रद्धा अपने ऊपर के कमरे की पोर चली, किंतु उसमे शक्ति न थी कि सीढ़ियां चढ सके । रस्सी को मजबूती से पकड़ती हुई किसी तरह अपने कमरे में पहुंची। हाय, अाध ही घटे पूर्व यहाँ झी एक-एक वस्तु पर प्रसन्नता, आह्लाद, आशाओ की छाप लगी हुई थी पर अब सबकी सब सिर धुनती हुई मालूम होती थीं। बड़े-बड़े सदूकों में जोड़े सजाये हुए रखे थे, उन्हे देखकर श्रद्धा के हृदय मे हूक उठी और वह गिर पड़ी, जैसे विहार करता हुप्रा और कुलाचे भरता हुआ हिरन तीर लग जाने से गिर पड़ता है। अचानक उसकी दृष्टि उस चित्र पर जा पड़ी जो आज तीन वर्ष से उसके जीवन का अाधार हो रही थी। उस चित्र को उसने कितनी बार चूमा था, कितनी बार गले लगाया था, कितनी बार हृदय से चिपका लिया था । वे सारी बातें एक एक करके याद आ रही थीं, लेकिन उनके याद करने का भी अधिकार उसे न था। हृदय के भीतर एक दर्द उठा, जो पहले से कहीं अधिक प्राणातक री था-जो पहले से भी अधिक तूफान के समान भयकर था । हाय ! उस मरने- वाले के दिल को उसने कितनी यत्रणा पहुँचाई । भगतराम के अविश्वास का i ६