पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१३७

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'१३८ मानसरोवर कजड़ों में धूम थी, जो अकेला सौ-पचास जवानों का नशा उतार सकता था, इस अबला के सामने चू तक न कर सका । दबी ज़बान से बोला- मेहरिया धरम बेचने के लिए नहीं लाई जाती, धरम पालने के लिए लाई जाती है। यह कजड़-दपती आज तीन दिन से और कई कजड़-परिवारो के साथ इस बाग में उतरा हुअा था। सारे बाग में सिरकियां ही सिरकियां दिखाई देती थीं। उसी तीन हाथ चौड़ी और चार हाथ लंबी सिरकी के अदर एक-एक पूरा परिवार, जीवन के समस्त व्यापारों के साथ, कल्पवास-सा कर रहा था । एक किनारे चक्की थी, एक किनारे रसोई का स्थान, एक किनारे दो-एक अनाज के मटके । द्वार पर एक छोटी-सी खटोली बालकों के लिये पड़ी थी । हरेक परिवार के साथ दो-दो भैंसे या गधे थे । जब डेरा कूच होता था तो सारी गृहस्थी इन जानवरों पर लाद दी जाती थी। यही इन कंजडों का जीवन था। सारी बस्ती एक साथ चलती थी। आपस ही में शादी-ब्याह लेन-देन, झगड़े-टटे होते रहते थे । इस दुनिया के बाहरवाला अखिल संसार उनके लिए केवल शिकार का मैदान था। उनके किसी इलाके मे पहुंचते ही वहाँ की पुलिस तुरत आकर उन्हें अपनी निगरानी में ले लेती थी। पड़ाव के चारो सरफ चौकीदार का पहरा हो जाता था। स्त्री या पुरुष किसी गांव मे जाते, तो दो-चार चौकीदार उनके साथ हो लेते थे। रात को भी उनकी हाज़िरी ली जाती थी। फिर भी आस-पास के गांवों में श्रातंक छाया हुआ था क्योंकि कंजड़ लोग बहुधा घरों में घुसकर जो चीज़ चाहते उठा लेते और उनके हाथ में जाकर कोई चीज़ लौट न सकती थी। रात में यह लोग अक्सर चोरी करने निकल जाते थे। चौकीदारो को उनसे मिले रहने मे ही अपनी कुशल दीखती थी। कुछ हाथ भी लगता था, और जान भी बची रहती थी। सख्ती करने मे प्राणों का भय था, कुछ मिलने का तो जिक्र ही क्या ; क्योंकि कंजड़ लोग एक सीमा के बाहर किसी का दबाव न मानते थे। बस्ती में अकेला भोंदू अपनी मेहनत की कमाई खाता था ; मगर इसलिए नहीं कि वह पुलीसवालों की खुशामद न कर सकता था। उसकी स्वतंत्र आत्मा अपने बाहुबल से प्राप्त