पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१३८

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प्रेम का उदय १३९ . किसी वस्तु में हिस्सा देना स्वीकार न करती थी, इसलिए वह यह नौबत आने ही न देती थी। बटी को पति की यह प्राचार-निष्ठा एक अखि न भाती थी। उसकी और बहने नई नई साडियां और नये-नये आभूषण पहनतीं, तो बटी उन्हें देख-देखकर पति की अकर्मण्यता पर कुढ़ती थी। इस विषय पर दोनों मे कितने ही सग्राम हो चुके थे , लेकिन भोंदू अपना परलोक बिगाड़ने पर राजी न होता था । आज भी प्रातःकाल यही समस्या आ खड़ी हुई थी और भोंदू लकड़ी काटने जगलों में निकल गया था। सांडे मिल जाते, तो आसू पुंछते, पर आज साडे भी न मिले । बटी ने कहा-जिनसे कुछ नहीं हो सकता, वही धरमात्मा बन जाते हैं । राड़ अपने माड़ ही मे खुश है । भोंदू ने पूछा--तो मैं निखट्टू हूँ ! बटी ने इस प्रश्न का सीधा-साधा उत्तर न देकर कहा-मै क्या जानू तुम क्या हो ? मैं तो यही जानती हूँ कि यहाँ धेले धेले के चीज के लिए तरसना पड़ता है । यहीं सबको पहनते-अोढ़ते, हँसते-खेलते देखती हूँ। क्या मुझे पहनने-अोढने, हॅसने खेलने की साध नहीं है ? तुम्हारे पल्ले पड़कर ज़िदगानी नष्ट हो गई। भोंदू ने एक क्षण विचार-मम रहकर कहा-जानती है, पकड़ जाऊँगा, तो तीन साल से कम की सजा न होगी। बटी विचलित न हुई । बोली-जब और लोग नहीं पकड़ जाते, तो तुम्हीं क्यों पकड़ जाओगे ? और लोग पुलीस को मिला लेते हैं, थानेदार के पाव सहलाते हैं, चौकी- दार की खुशामद करते हैं । तू चाहती है, मैं भी औरों की तरह सबकी चिरौरी करता फिरूँ ? बटी ने अपनी हठ न छोड़ी-मैं तुम्हारे साथ सती होने नहीं आई। फिर तुम्हारे छूरे-गडासे को कोई कहाँ तक डरे । जानवर को भी जब घास- भूसा नहीं मिलता, तो पगहा तुडाकर किसी के खेत मे पैठ जाता है । मैं तो आदमी हूँ।