पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१४०

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प्रेम का उदय १४२ बटी ने श्राखें नचाकर कहा- कह दूंगी, क्यों बताऊँ। दुनिया कमाती है, तो किसी को हिसाब देने जाती है ? हमीं क्यो अपना हिसाब दे ? भोंदू ने सदिग्ध भाव से गर्दन हिलाकर कहा- यह कहने से गला न छूटेगा वटी तू कह देना, मैं तीन-चार मास से दो-दो चार-चार रुपये महीने जमा करती आई हूँ। हमारा ख़रच ही कौन बडा लबा है । दोनों ने मिल कर बहुत-से जवाब सोच निकाले-जडी-बूटियां बेचते हैं । एक-एक जडी के लिए मुट्ठी-मुट्ठी भर रुपये मिल जाते हैं । खस, सांडे, जान- वरों की खाले, नख और चर्बी, सभी वेचते हैं । इस ओर से निश्चित होकर दोनों बाजार चले। बटी ने अपने लिए तरह तरह के कपड़े, चूड़ियां, टिकुलियाँ, बु दे, सेदुर, पान, तमाखू, तेल और मिठाई ली । फिर दोनों जने शराब की दूकान गये। खूब शराब पी। फिर दो बोतल शराब रात के लिए लेकर दोनों घूमते-घामते गाते-बजाते घड़ी रात गये डेरे पर लौटे । वटी के पाँव अाज जमीन पर न पड़ते थे। आते ही बन-ठनकर पड़ोसियों को अपनी छबि दिखाने लगी। जब वह लौटकर अपने घर आई और भोजन पकाने लगी, तो पड़ोसियों ने टिप्पणियां करनी शुरू की- 'कहीं गहरा हाथ मारा है।' 'बड़ा धरमारमा बना फिरता था ।' 'बगला भगत है। 'वटी तो आज जैसे हवा में उड़ रही है 'आज भोंदुश्रा की कितनी ख़ातिर हो रही है। नहीं कभी एक लुटिया पानी देने भी न उठती थी।' रात को भोंदू को देवी की याद आई । आज तक कभी उसने देवी की वेदी पर बकरे का बलिदान न किया था । पुलीस को मिलाने में ज्यादा खर्च था । कुछ अात्म-सम्मान भी खोना पडता । देवीजी केवल एक बकरे में राजी हो जाती हैं । हाँ, उससे एक ग़लती जरूर हुई थी। उसकी बिरादरी के और लोग साधारणतया कार्यसिद्धि के पहले ही बलिदान दिया करते थे। भोंदू ने यह खतरा न लिया । जब तक माल हाथ न आ जाय, उसके भरोसे पर देवी-