पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१४६

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प्रेम का उदय १४७ पर ग्राज भी ससार के भोग्य पदार्थों की ओर मन को चलायमान कर देती है, उसे खींचकर डेरे की ओर ले चली। दोपहर हो गया था । वह पडाव पर पहुंची, तो सन्नाटा छाया हुआ था। अभी कुछ देर पहले जो स्थान जीवन का क्राडा-क्षेत्र बना हुआ था, बिल कूल निर्जन हो गया था। यह बिरादरीवालों के तिरस्कार का सबसे भय कर रूप था। सभी ने उसे त्याज्य समझ लिया। केवल उसकी सिरकी उस निर्जनता मे रोती हुई खड़ी थी। बटी ने उसके अदर पाव रखे, तो उसके मन की कुछ वही दशा हुई, जो अकेला घर देखकर किसी चोर की होती है। कौन कौन- सी चीज़ समेटे। उस कुटी में उसने रो रोकर पांच वर्ष काटे थे उसे उससे वही ममता हो रही थी, जो किसी माता को अपने दुगुणी पुत्र को देखकर होती है, जो बरसो के बाद परदेस से लौटा हो । हवा से कुछ चाज़े इधर की उधर हो गई थीं। उसने तुरन्त उसे सँभालकर रखा। फुलौड़ियों की हाटी छींके पर कुछ ठढी ही गई थी। शायद उस पर बिल्ली झपटी थी। उसने जल्दी से हाँड़ी उतार कर देखी । फुलौडिया अछूती थीं। पानो पर जो गीला कपडा लपेटा था, वह सूख गया था। उसने तुरत करड़ा तर कर दिया। किसी पाव की आहट पाकर उसका कलेजा धक् से हो गया ।। भोंदू श्रा रहा है। उसकी वह दोनो अगारे सी आँखें । उसके गेये खड़े हो गये। भोंदू के क्रोध का उसे दो एक बार अनुभव हो चुका था , लेकिन उसने दिल को मजबूत किया । क्यो मारेगा ? कुछ कहेगा, कुछ पूछेगा, कुछ सवाल- जवाब करेगा कि यो ही गॅडासा चला देगा । उसने उसके साथ कोई बुराई नहीं की । अाफत से उसकी जान बचाई । मरजाद जान से प्यारी नहीं होती। भोंदू को होगी, उसे नहीं है। क्या इतनी सी बात के लिए वह उसको जान ले लेगा। उसने सिरकी के द्वार से झांका । भोंदू न था, केवल उसका गधा चला श्रा रहा था। वटी आज उस अभागे से गधे को देखकर ऐसी प्रसन्न हुई, मानों अपना भाई नैहर से बतासों की पोटली लिये थका मादा चला पाता हों। उसने