. १४८ मानसरोवर जाकर उसकी गर्दन सहलाई और उसके थूथन को अपने मुँह से लगा लिया। वह उसे फूटी आँखों न भाता था , पर आज उससे उसे कितनी आत्मीयता हो गई थी। वह दोनों अंगारे सी आँखे उसे धूर रहीं थीं। वह सिहर उठी। उसने फिर सोंचा-क्या किसी तरह न छोड़ेगा ? वह रोती हुई उसके पैरों पर गिर पड़ेगी। क्या तब भी न छोड़ेगा? इन आँखों की वह कितनी सराहना किया करता था । इनमें आंसू बहते देखकर भी उसे दया न आयेगी! बटी ने चुक्कड में शराब उँडेलकर पी ली और छींके से फुलौड़ियाँ उतार कर खाई । जब उसे मरना ही है, तो साध क्यो रह जाय । वह दोनों अंगारे सी आँखें उसके सामने चमक रही थीं। उसने दूसरा चुक्कड़ भरा और पी गई । जहरीला ठर्रा जिसे दोपहर की गर्मी ने और भी घातक बना दिया था, देखते-देखते उसके मस्तिष्क को खौलाने लगा। बोल श्राधी हो गई थी। उसने सोचा-भोंदू कहेगा, तूने इतनी दारू क्यों पी तो वह क्या कहेगी। कह देगी-हो, पी ; क्यों न पीये, इसी के लिए तो यह सब कुछ हुा । वह एक बूंद भी न छाडेगी। जो होना हो, हो। भोंदू उसे मार नहीं सकता । इतना निर्दयी नहीं है, इतना कायर नहीं है । उसने फिर चुक्कड भरा और पी गई । पाँच वर्ष के वैवाहिक जीवन की अतीत स्मृतियाँ उसी आँखों के सामने खिच गई । सैकड़ों ही बार दोनो में गृह-युद्ध हुए थे । अाज बटी को हर बार अपनी ही ज्यादती मालूम हो रही थी। बिचारा जो कुछ कमाता है, उसी के हाथों पर रख देता है। अपने लिए कभी एक पैसे की तम्बाकू भी लेता है तो पैसा उसी से मांगता है । भोर से साँझ तक वन वन फिरा ही तो करता है । जो काम उससे नहीं होता वह कैसे करे । यकायक एक कास्टेबल ने आकर कहा-अरी वटी कहाँ है ? चल देख भोदुबा का हाल बे-हाल हो रहा है। अभी तक तो चुपचाप बैठा था। फिर न-जाने क्या जी मे पाया कि एक पत्थर पर अपना सिर पटक दिया। मगर लहू बह रहा है । हम लोग दौड़कर पकड़ न ले, तो जान ही दे दी थी। एक महीना बीत गया था। सन्ध्या का समय था। काली-काली घटायें
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