पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१५२

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सती १७३ - अब वह कल्लू की अलों से गिर गई है। उसे अपना जीवन निराधार-सा जान पड़ता था। सोचने लगी ; भगवान ने सुझे यह रूप क्यो दिया ? यह रुप न होता, तो राजा क्यों मेरे पीछे पड़ता और क्यों आज मेरों यह गत होती ? मैं काली- कुरूप रहकर इससे कहीं सुखी रहती। तब तो मन इतना चचल न होता। जिन्हें रूप की कमाई खानी हो, वह रूप पर फूले, यहाँ तो इसने मटियामेट कर दिया। न जाने कब उसे झपकी आ गई, तो देखती है, कल्लू मर गया है और राजा घर में घुसकर उसे पकड़ना चाहता है। उसी दम एक वृद्धा स्त्री न- जाने किधर से आकर उसे अपनी गोद में ले लेती है। और कहती है-तूने कल्लू को क्यों मार डाला ? मुलिया रोकर कहती है-माता, मैंने उन्हें नहीं मारा । वृद्धा कहती है-हाँ, तूने छूरी कटार से नहीं मारा, उस दिन तेरा तप छीन हो गया और इसी से वह मर गया । मुलया ने चौकन्नी आँखे खोल दीं। सामने आँगन मे कल्लू सोया हुआ था । वह दौड़ी हुई उसके पास गई और उसकी छाती पर सिर रखकर फूट- फूटकर रोने लगी। कल्लू ने घबड़ाकर पूछा-कौन है ? मुलिया! क्यों रोती हो ? क्या डर लग रहा है ? मैं तो जाग ही रहा हूँ। मुलिया ने सिसकते हुए कहा-मुझसे श्राज एक अपराध हुआ है । उसे क्षमा कर दो। कल्लू उठ बैठा-क्या बात है । कहो तो ! रोती क्यों हो ? मुलिया-राजा तमाखू मांगने नहीं आया था। मैंने तुमसे झूठ कहा था। कल्लू हँसकर बोला-वह तो मैं पहले ही समझ गया था। मुलिया -वह मेरे लिए चुंदरी लाया था। 'तुमने लौटा दी। मुलिया कापती हुई बोली-मैंने ले ली। कहते थे, मैं जहर-माहुर खा लँगा।