पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१६१

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O- १६२ मानसरोवर २५ हजार मेरे हो जायेगे । बाकी भोज में खर्च हो जायगा। अगर कुछ बच रहा तो बाल-बच्चों के काम श्रा जायगा। धनीराम-आपके यहाँ कितने पर घर बधक रखा था ? कुबेर०~२० हजार पर । रुपये सैकडे सूद । धनी० -मैंने तो कुछ कम सुना है। कुबेर० -उसका तो रेहननामा रखा है। ज़बानी बात-चीत थोड़े ही है। मैं दो-चार हजार के लिए झूठ नहीं बोलूंगा। धनी०-नहीं नहीं, यह मैं कब कहता हूँ। तो तूने सुन लिया बाई । पंचो की सलाह है कि मकान बेच दिया जाय । सुशीला का छोटा भाई सतलाल भी इसी समय था पहुँचा। यह अतिम वाक्य उसके कान में पड़ गया। बोल उठा-किस लिए मकान बेच दिया जाय ? बिरादरी के भोज के लिए ? बिरादरी तो खा-पीकर राह लेगी, इन अनाथो की रक्षा कैसे होगी। इनके भविष्य के लिए भी तो कुछ सोचना चाहिए। धनीराम ने कोप-भरी आँखो से देखकर कहा-आपको इन मामलों मे टाँग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं। केवल भविष्य की चिंता करने से काम नहीं चलता । मृतक का पीछा भी किसी तरह सुधारना ही पड़ता है । आपका क्या बिगड़ेगा। हँसी तो हमारी होगी। संसार में मर्यादा से प्रिय कोई वस्तु नहीं । मर्यादा के लिए प्राण तक दे देते हैं । जब मर्यादा ही न रही, तो क्या रहा । अगर हमारो सलाह पूछोगे, तो हम यही कहेगे। अागे बाई का अख़तियार है, जैसा चाहे करे; पर हमसे कोई सरोकार न रहेगा। चलिए कुबेरदासजी, चले। सुशीला ने भयभीत होकर कहा-भैया की बातों का विचार न कीजिये, इनकी तो यह आदत है। मैंने तो आपकी बात नहीं टाली, आप मेरे बड़े हैं । घर का हाल अापको मालूम है। मैं अपने स्वामी की आत्मा को दुःखी करना नहीं चाहती; लेकिन जब उनके बच्चे ठोकरे खायेंगे, तो क्या उनकी श्रात्मा दुखी न होगी। बेटी का व्याह करना ही है। लड़के को पढाना- लिखाना है ही। ब्राह्मणो को खिला दीजिए; लेकिन बिरादरी करने की मुझ में सामर्थ नहीं है। , .