मृतक भोज दोनों महानुभावों को जैसे थप्पड़ लगा-इतना बडा अधर्म । भला ऐसी बात भी जबान से निकाली जाती है। पच लोग अपने मुंह में कालिख न लगने देगे । दुनिया विधवा को न हसेगी, हँसी होगी पंचो की । यह जग- हँसाई वे कैसे सह सकते हैं । ऐसे घर के द्वार पर झांकना भी पाप है। सुशीला रोकर बोली-मैं अनाथ हूँ, नादान हूँ मुझपर क्रोध न कीजिए । आप लोग ही मुझे छोड़ देगे, तो मेरा कैसे निर्वाह होगा। इतने में दो महाशय और श्रा बिराजे । एक बहुत मोटे और दूसरे बहुत दुबले । नाम भी गुणों के अनुसार ही-भीमचद और दुर्बलदास । धनीराम ने सक्षेप में यह परस्थिति उन्हें समझा दी। दुर्बलदास ने सहृदयता से कहा-तो ऐसा क्यों नहीं करते कि हम लोग मिल कर कुछ रुपये दे दे । जब इसका लड़का सयाना हो जायगा, तो रुपये मिल ही जायेंगे। अगर न भी मिले, तो एक मित्र के लिए कुछ बल खा जाना कोई बड़ी बात नहीं । सतलाल ने प्रसन्न होकर कहा- इतनी दया आप करेंगे, तो क्या पूछना। कुदेरदास त्योरी चढाकर बोले-तुम तो बे-सिर पैर की बाते करने लगे दुर्बलदासजी । इस बखत के बाजार में क्सिके पास फालतू रुपये रखे हैं भीमचद-- सो तो ठीक है, बाज़ार की ऐसी मदी तो कभी देखी नहीं; पर निबाह तो करना चाहिए । कुबेरदास अकड़ गये । वह सुशीला के मकान पर दात लगाये थे ऐसी बातो से उनके स्वार्थ में बाधा पडती थी। वह अपने रुपये अब वसूल करके छोड़ेंगे । औरतों के झमेले में नहीं पड़ेगे। भीमचद ने उन्हें किसी तरह सचेत किया, लेकिन भोज तो देना ही पड़ेगा । उस कर्तव्य का पालन न करना समाज की नाक काटना है। सुशीला ने दुर्वलदास में सहृदयता का आभास देखा । उनकी ओर दीन नेत्रों से देखकर बाली-मैं आप लोगो से बाहर थोड़े ही हूँ। श्राप लोग मालिक है, जैसा उचित समझे वैसा करें। दुर्बलदास-तेरे पास कुछ थोड़े-बहुत गहने तो होगे बाई । 'हो गहने हैं । श्राधे तो बीमारी में विक गये, आधे बचे हैं। सुशीला ने
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