पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१६३

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मानसरोवर -- सारे गहने लाकर पंचों के सामने रख दिये ; पर यह तो मुश्किल से तीन हजार में उठेगे।" दुर्बलदास ने पोटली को हाथ में तौलकर कहा-तीन हजार को कैसे जायेंगे। मैं साढे तीन हजार दिला दूंगा। भीमचंद ने फिर पोटली को तौलकर कहा-मेरी बोली चार हजार की है। कुबेरदास को मकान की बिक्री का प्रश्न छेड़ने का अवसर फिर मिला- चार हज़ार ही में क्या हुश्रा जाता है । बिरादरी का भोज है या दोष मिटाना है। बिरादरी में कम से कम दस हजार का ख़रचा हैं। मकान तो निकालना ही पड़ेगा। संतलाल ने ओठ चबाकर कहा-मैं कहता हूँ श्राप लोग क्या इतने निर्दयी हैं ! श्राप लोगों को अनाथ बालकों पर भी दया नहीं पाती। क्या उन्हें रास्ते का भिखारी बनाकर छोड़ेगे ? लेकिन संतलाल की फ़रियाद पर किसी ने ध्यान न दिया। मकान की बातचीत अब नहीं टाली जा सकती थी। बाज़ार मदा है। ३० हजार से बेसी नहीं मिल सकते, २५ हजार तो कुबेरदास के हैं। पांच हजार बचेगे। चार हजार गैहनों से आ जायेगे । इस तरह ६ हजार में बड़ी किफायत से ब्रह्मभोज और बिरादरी दोनों निपटा दिये जायेंगे। सुशीला ने दोनों बालको को सामने करके करबद्ध होकर कहा-पंचो, मेरे बच्चो का मुंह देखिए । मेरे घर में जो कुछ है, वह आप सब ले लीजिए; लेकिन मकान छोड़ दीजिए-मुझे कहीं ठिकाना न मिलेगा। मैं आपके पैरों पड़ती हूँ, मकान इस समय न बेचे । इस मूर्खता का क्या जवाब दिया जाय । पंच लोग तो खुद चाहते थे कि मकान न बेचना पड़े। उन्हें अनाथों से कोई दुश्मनी नहीं थी; कितु बिरा. दरी का भोज और किस तरह किया जाय । अगर विधवा कम से कम पांच हज़ार का जोगाड़ और कर दे, तो मकान बच सकता है ; पर जब वह ऐसा नहीं कर सकती, तो मकान बेचने के सिवाय और तो कोई उपाय नहीं है। कुबेरदास ने अंत में कहा-देख बाई, बाज़ार की दशा इस समय car