- १६८ मानसरोवर हो । रामनाथ से भाई-चारे का व्यवहार था। हम न करते तो कौन करता। चार दिन से सोना नसीब नहीं हुआ। 'श्राप धन्य हैं । मित्र हों तो ऐसे हों।' 'क्या बात है! आपने रामनाथजी का नाम रख लिया। बिरादरी यही खाना-खिलाना देखती है । रोकड़ देखने नहीं आती।' मेहमान लोग बखान कर-कर तर माल उड़ा रहे थे और उधर कोठरी में बैठी हुई सुशीला सोच रही थी-ससार मे ऐसे स्वार्थी लोग हैं ! सारा ससार स्वार्थमय हो गया है ! सब पेटों पर हाथ फेर-फेर भोजन कर रहे हैं। कोई इतना भी नहीं पूछता कि अनाथो के लिए भी कुछ बचा या नहीं। ( ४ ) एक महीना गुजर गया। सुशीला को एक-एक पैसे की तंगी हो रही थी। नकद था ही नहीं, गहने निकल ही गये। अब थोड़े से बरतन बच रहे थे। उधर छोटे-छोटे बहुत-से बिल चुकाने थे। कुछ रुपये डाक्टर के, कुछ दरजी के, कुछ बनियों के । सुशीला को यह रकमे घर का बचा-खुचा सामान वेचकर चुकानी पड़ी। और महीना पूरा होते-होते उसके पास कुछ न बचा। बेचारा संतलाल एक दुकान पर मुनीब था। कभी-कभी वह आकर एकाध रुपया दे देता। इधर खर्च का हाथ फैला हुआ था। लड़के अवस्था को समझते थे। मा को छेडते न थे पर मकान के सामने से कोई खोंचेवाला निकल जाता और वह दूसरे लड़को को फल या मिठाइयां खाते देखते, तो उनके मुँह में पानी भरकर आँखों में भर जाता था । ऐसी ललचाई हुई अखिो से ताकते थे कि दया आती थी। वही बच्चे जो थोड़े दिन पहले मेवे-मिठाई की ओर ताकते न थे, अब एक-एक पैसे की चीज़ को तरसते थे । वही, सजन जिन्होंने बिरादरी का भोज करवाया था, अब घर के सामने से निकल जाते; पर कोई झांकता न था। शाम हो गई थी। सुशीला चूल्हा जलाये रोटियां सेक रही थी और दोनों बालक चूल्हे के पास रोटियों को क्षुधित नेत्रों से देख रहे थे । चूल्हे के दूसरे ऐले पर दाल थी। दाल के पकने का इंतजार था। लडकी ग्यारह साल थी, लड़का आठ साल का। 1
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