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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१७४

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मृतक भोज . पर ज्वर घाव पर नमक क्यों छिड़के। वहाना कर दिया, बड़े पंचजी कहीं गये हैं। सुशीला-तो मुनीम से क्यों नहीं कहा ? यहाँ क्या कोई मिठाई खाये जाता था जो दौड़ी चली आई ? इसी वक्त सतलाल एक वैद्यजी को लेकर आ पहुंचा। ( ७ ) वैद्यजी भी एक दिन आकर दूसरे दिन न लौटे। सेवा-समिति के डाक्टर भी दो दिन बड़ी मिन्नतों से आये। फिर उन्हें भी अवकाश न रहा और मोहन की दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती थी। महीना बीत गया ऐसा चढ़ा कि एक क्षण के लिए भी न उतरा। उसका चेहरा इतना सूख गया था कि देखकर दया पाती थी । न कुछ बोलता, न कहता, यहाँ तक कि करवट भी न बदल सकता था। पड़े-पड़े देह की खाल फट गई, सिर के बाल गिर गये। हाथ-पांव लकड़ी हो गये। सतलाल काम से छुट्टी पाता तो श्रा नाता, पर इससे क्या होता, तीमारदारी दवा तो नहीं है । एक दिन सध्या समय उसके हाथ ठडे हो गये। माता के प्राण पहले ही से सूखे हुए थे । यह हाल देखकर रोने-पीटने लगी। मन्नते तो बहुतेरी हो चुकी थीं, रोती हुई मोहन की खाट के सात फेरे करके हाथ बांधकर बोली- भगवन् ! यही मेरे जन्म की कमाई है। अपना सर्वस्त्र खोकर भी मैं बालक- को छाती से लगाये हुए सतुष्ट थी ; लेकिन यह चोट न सही जायगी। तुम इसे अच्छा कर दो। इसके बदले मुझे उठा लो। बस, मैं यही दया चाहती हूँ, दयामय ! ससार के रहस्य कौन समझ सकता है ? क्या हममे से बहुतों का यह अनुभव नहीं कि जिस दिन हमने वेईमानी करके कुछ रकम उड़ाई, उसी दिन उस रकम का दुगना नुकसान हो गया। सुशीला को उसी दिन रात को ज्वर आ गया और उसी दिन मोहन का ज्वर उतर गया। बच्चे की सेवा- सुश्रूषा में आधी तो यों ही रह गई थी, इस बीमारी ने ऐसा पकड़ा कि फिर न छोड़ा। मालूम नहीं, देवता बैठे सुन रहे थे या क्या, उसकी याचना अक्षरशः पूरी हुई। पन्द्रहवे दिन मोहन चारपाई से उठकर मा के पास आया और उसक छाती पर सिर रखकर रोने लगा। माता ने उसके गले