पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१७५

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१७६ मानसरोवर में बाहें डालकर उसे छाती से लगा लिया और बोली-क्यों रोते ही बेटा! मै अच्छी हो जाऊँगी । अब मुझे क्या चिंता। भगवान पालनेवाले हैं। वहो तुम्हारे रक्षक हैं । वही तुम्हारे पिता हैं । अब मैं सब तरफ से निश्चित हूँ। जल्द अच्छी हो जाऊँगी। मोहन बोला-जिया तो कहती है, अम्मा अब न अच्छी होंगी। सुशीला ने बालक का चुबन लेकर कहा-जिया पगली है, उसे कहने दो । मैं तुम्हें छोडकर कहीं न जाऊँगी। मै सदा तुम्हारे साथ रहूंगी। हाँ, जिस दिन तुम कोई अनबाध करोगे, किसी की कोई चीज़ उठा लोगे, उसी दिन मैं मर जाऊँगी! मोहन ने प्रसन्न होकर कहा-तो तुम मेरे पास से कभी नहीं जायोगी मा! सुशीला ने कहा- कभी नहीं बेटा, कभी नहीं । उसी रात को दुःख और विपत्ति की मारी हुई यह अनाथ विधवा-दोनों अनाथ बालकों को भगवान पर छोड़कर परलोक सिधार गई। (८) इस घटना को तीन साल हो गये हैं मोहन और रेवती दोनों उसी वृद्धा के पास रहते हैं । बुढिया मा तो नहीं है, लेकिन मां से बढ़कर है । रोज मोहन को रात की रखी रोटियों खिलाकर गुरुजी की पाठशाला में पहुंचा श्राती है। छुट्टी के समय जाकर लिवा पाती है। रेवती का अब चौदहवा साल है । वह घर का सारा काम-पिसना, कूटना, चौका-बरतन, झाडू- बहारू-करती है । बुढ़िया सौदा बेचने चली जाती है, तो वह दूकान पर भी आ बैठती है। एक दिन बड़े पच सेठ कुवेरदास ने उसे बुला भेजा और बोले-तुझे दुकान पर बैठते शर्म नहीं आती, सारी बिरादरी की नाक कटा रही है । खबरदार जो कल से दूकान पर बैठी । मैंने तेरे पाणिग्रहण के लिए झाबर- मलजी को पक्का कर लिया है। सेठानी ने समर्थन किया- तू अब सयानी हुई बेटी, अब तेरा इस तरह बैठना अच्छा नहीं। लोग तरह-तरह की बाते करने लगते हैं। सेठ झाबरमल तो राजी ही न होते थे, हमने बहुत कह-सुनकर राजी किया है । बस समझ . - -