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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२१६

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. दो सखियाँ क्या दशा हो जाती है। यह उनपर न्योछावर होने के लिए विकल हो जाती है । वह मेरी आत्मा में बस गये हैं। अपने पुरुष की मैंने मन में जो कल्पना की थी, उसमें और इनमें बाल बराबर भी अतर नहीं। मुझे रात-दिन यही भय लगा रहता है कि कहीं मुझमे उन्हें कोई त्रुटि न मिल जाय । जिन विषयों से उन्हें रुचि है, उनका अध्ययन श्राधी रात तक बैठी किया करती हूँ। ऐसा परिश्रम मैने कभी न किया था । पाहने-कंघी से मुझे कभी इतना प्रम न था, सुभाषितों को मैंने कभी इतने चाव से कठ न किया था। अगर इतना सब कुछ करने पर भी मैं उनका हृदय न पा सकी, तो बहन, मेरा जीवन नष्ट हो जायगा, मेरा हृदय फट जायगा और ससार मेरे लिए सूना हो जायगा। कदाचित् प्रेम के साथ ही मन मे ईर्ष्या का भाव भी उदय हो जाता है। उन्हें मेरे बॅगले की अोर श्राते हुए देख जब मेरी पड़ोसिन कुसुम अपने बरा. मदे मे आकर खड़ी हो जाती है, तो मेरा ऐसा जी चाहता है कि उसकी श्राखें ज्योति-हीन हो जाय । कल तो अनर्थ ही हो गया। विनोद ने उसे देखते ही हैट उतार ली और मुसकिराये । वह कुलटा भी खीसे निकालने लगी। ईश्वर सारी विपत्तियां दे, पर मिथ्याभिमान न दे। चुडैलों की-सी तो आपकी सूरत है, पर अपने को अप्सरा समझती हैं । श्राप कविता करती है और कई पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छप भी गई हैं। बस, आत ज़मीन पर पाव नहीं रखनी । सच कहती हूँ, थोडी देर के लिए विनोद पर से मेरी श्रद्धा उठ गई । ऐसा आवेश होता था कि चलकर कुसुम का मुँह नोच लूँ । खैरियत हुई कि दोनों में बातचीत न हुई, पर विनोद श्राकर बैठे, तो आध घटे तक मैं उनसे न बोल सकी, जैसे उनके शब्दो मे वह जादू ही न था, वाणी मे वह रस ही न था। तबसे अब तक मेरे चित्त की व्यग्रता शात नहीं हुई । रात-भर मुझे नींद नहीं आई, वह दृश्य आँखो के सामने बार-बार श्राता था। कुसुम को लजित करने के लिए कितने मसूवे बांध चुकी हूँ। चदा, मुझे अाज तक यह नहीं मालूम था कि मेरा मन इतना दुर्बल है अगर यह भय न होता कि विनोद मुझे ओछी और हलकी समझेगे, तो मैं उनसे अपने मनोभावो को स्पष्ट कह देती। मैं सपूर्णतः उनकी होकर उन्हें सपूर्णतः अपना बनाना चाहती हूँ। मुझे विश्वास है कि संसार का सबसे