सद्गति २१ चिंता न करो भाई । मैं जाता हूँ पंडितजी के घर से भाग मांग लूंगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी। यह कहता हुआ वह दोनो चीजे लेकर चला पाया और पंडितजी के घर में बरौठे के द्वार पर खड़ा होकर बोला-मालिक, रचिक प्राग मिल जाय, तो चिलम पी ले। पडितजी भोजन कर रहे थे। पडिताहन ने पूछा-यह कौन आदमी श्राग मांग रहा है? पंडित-अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा है थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे । आग तो है, दे दो। पडिताइन ने भवें चढ़ाकर कहा-तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रे के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि ही नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाये घर में चला पाये। हिंदू का घर न हुआ, कोई सराय हुई । कह दो दाढ़ीजार से चला जाय, नहीं तो इसी लुाठे से मुँह झुलस दूंगी। आग मांगने चले हैं। पंडितजी ने उन्हे समझाकर कहा-भीतर आ गया, तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज़ तो नहीं छुई । धरती पवित्र है । जरा-सी श्राग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है । कोई लोनियाँ यही लकड़ी फाड़ता, तो कम से कम चार आने लेता। पडिताइन ने गरजकर कहा-वह घर मे श्राया क्यों ? पडित ने हारकर कहा-ससुरे का अभाग था, और क्या? पंडिताइन-अच्छा, इस बखत तो श्राग दिये देती हूँ; लेकिन फिर जो इस तरह कोई घर में आयेगा, तो उसका मुँह ही जला दूंगी। दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक अाया। सच तो कहती हैं। पडित के घर में चमार कैसे चला आये। बड़े पबित्तर होते हैं यह लोग, तभी तो ससार पूजता है, तभी तो इतना मान है । भर-च मार थोड़े ही हैं। इसी गांव मे बूढ़ा हो गया ; मगर मुझे इतनी अकल भी न आई। इसलिए जब पडिताइन आग लेकर निकली, तो वह मानो स्वर्ग का २
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२२
दिखावट