२२ मानसरोवर वरदान पा गया । दोनो हाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता हुआ बोला- पड़ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला पाया । चमार की अकल ही तो ठहरी । इतने मूरख न होते, तो लात क्यों खाते । पडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लाई थीं। पांच हाथ की दूरी से घूघट की आड़ से दुखी की तरफ आग फेकी । श्राग की बड़ी-सी चिनगारी दुखी के सिर पर पड़ गई। जल्दी से पीछे हटकर सिर को झोटे देने लगा। उसके मन ने कहा-यह एक पबित्तर बाम्हन के घर को अपबित्तर करने का फल है । भगवान ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसीसे तो संसार पडितो से डरती है। और सबके रुपये मारे जाते हैं । बराम्हन के रुपये भला कोई मार तो ले । घर भर का सत्यानाश हो जाय, पाव गलनालकर गिरने लगे । बाहर आकर उसने चिलम पी और फिर कुल्हाड़ी लेकर जुट गया । खट-खट की आवाज़ पाने लगीं। उसपर आग पड़ गई, तो पडिताइन को उसपर कुछ दया आ गई। पडितजी भोजन करके उठे, तो बोलीं-इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है । भूखा होगा। पडितजी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से समझकर पूछा- रोटियाँ हैं ? पडिताइन-दो-चार बच जायेगी। पडत-दो-चार रोटियों में क्या होगा? चमार है, कम से कम सेर भर चढा जायगा। पंडिताइन कानो पर हाथ रखकर बोलीं-अरे बाप रे! सेर भर ! तो फिर रहने दो। पडितजी ने अब शेर बनकर कहा-कुछ भूसी-चोकर हो तो श्राटे में मिलाकर दो ठो लिट्ट ठोक दो। साले का पेट भर जायगा। पतली रोटियों से इन नीचो का पेट नहीं भरता । इन्हें तो जुनार का लिट्ट चाहिए। पडिताइन ने कहा-अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे । दुखी ने चिलम पोकर फिर कुल्हाड़ी सँभाली । दम लेने से ज़रा हाथों में
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२३
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