पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२२०

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दो सखियाँ २२१ पर की धारा बहने लगी। कदाचित् यही आनंद की चरम सीमा है। कुछ- कुछ निराश हो चली थी। तीन-चार दिन से विनोद को, आते जाते कुसुम से बाते करते देखती थी, कुसुम नित नये आभूषणों से सजी रहती थी और क्या कहूँ, एक दिन विनोद ने कुसुम की एक कविता मुझे सुनाई और एक एक शब्द पर सिर धुनते रहे । मैं मानिनी तो हूँ ही, सोची, जब यह उस चुडैल लद्द हो रहे हैं, तो मुझे क्या गरज पड़ी है कि इनके लिए अपना सिर खपाऊँ। दूसरे दिन वह सवेरे आये, तो मैंने कहला दिया, तबियत अच्छी नहीं है। जब उन्होंने मुझसे मिलने के लिए आग्रह किया, तब विवश होकर मुझे कमरे मे आना पडा । मन में निश्चय करके आई थी--साफ कह दूगी अब श्राप न पाया कीजिए । मैं आपके ये ग्य नहीं हूँ, मैं कवि नहीं, विदुषी नहीं, सुभाषिणी नहीं. ...एक पूरी स्पीच मन मे उमड रही थी, पर कमरे में पाई और विनोद के सतृष्ण नेत्र देखे, प्रबल उत्कठा से कांपते हुए श्रोठ- बहन, उस आवेश का चित्रण नहीं कर सकती। विनोद ने मुझे बैठने भी न दिया। मेरे सामने घुटनों के बल फर्श पर बैठ गये, और उनके आतुर, उन्मत्त शब्द मेरे हृदय को तरगित करने लगे। एक सप्ताह तैयारियों में कट गया। पापा और मामा फूले न समाते थे। और सबसे प्रसन्न थी कुसुम । वहो कुसुम जिसकी सूरत से मुझे घृणा थी ! अब मुझे ज्ञात हुआ कि मैंने उसपर सदेह करके उसके साथ धर अन्याय किया । उसका हृदय निष्कपट है, उसमें न ईर्ष्या है, न तृष्णा, सेवा ही उसके जीवन का मूल-तत्व है । मैं नहीं समझती कि उसके बिना ये सात दिन कैसे कुछ खोई-खोई-सी जान पड़ती थी। कुसुम पर मैंने अपना सारा भार छोड़ दिया था। आभूषणो के चुनाव और सजाव, वस्त्रों के रग और काट-छोट के विषय में उसकी सुरुचि विलक्षण है। आठवे दिन जब उसने मुझे दुलहिन बनाया, तो मैं अपना रूप देखकर चकित हो गई । मैंने अपने को कभी ऐसी सुदरी न समझा था। गर्व से मेरी आँखों में नशा-सा छा गया ! उसी दिन सध्या-समय विनोद और मैं दो भिन्न जल-धाराओं की भांति सगम पर मिलकर अभिन्न हो गये। विहार-यात्रा की तैयारी पहले ही से हो चुकी थी, प्रातःकाल हम मंसूरी के लिए रवाना हो गये। कुसुम हमें पहुंचाने क्टते।