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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२२७

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२२८ मानसरोवर गोरखपुर २५.९-२५ प्यारी पद्मा-तुम्हारा ख़त मिला, अाज , जवाब लिख रही हूँ। एक तुम हो कि महीनों रटाती हो। इस विषय मे तुम्हें मुझसे उपदेश लेना चाहिए । विनोद बाबू पर तुम 'व्यर्थ ही आक्षेप लगा रही हो। तुमने क्यों पहले ही उनकी आर्थिक दशा की जांच-परताल नहीं की ? बस, एक सुंदर, रसिक, शिष्ट, वाणी-मधुर, युवक देख फूल उठीं। अब भी तुम्हारा ही दोष है। तुम अपने व्यवहार से, रहन-सहन से सिद्ध कर दो कि तुममें गभीर अंश भी है, फिर देखू विनोद बाबू कैसे तुमसे परदा रखते हैं। और बहन, वह तो मानवी स्वभाव है, सभी चाहते हैं कि लोग हमें सपन्न समझे, इस स्वाग को अत तक निभाने की चेष्टा की जाती है और जो इस काम मे सफल हो जाता है, उसी का जीवन सफल समझा जाता है। जिस युग में धन ही सर्वप्रधान हो, मर्याद, कीर्ति, यश, यहाँ तक कि विद्या भी धन से खरीदी जा सके, उस युग में स्वांग भरना एक लाज़िमी बात हो जाती है । अधिकार योग्यता का मुंह ताकते हैं ! यही समझ लो कि इन दोपो मे फून और फल का सबध है। योग्यता का फूल लगा, और अधिकार का फल पाया। इस ज्ञानोपदेश के बाद अब तुम्हे हार्दिक धन्यवाद देती हूँ। तुमने पति- देव के नाम जो पत्र लिखा था, उसका बहुत अच्छा असर हुआ । उसके पांचवे ही दिन स्वामी का कृपापत्र मुझे मिला । बहन, वह खत पाकर मुझे कितनी खुशी हुई ; इसका तुम अनुमान कर सकती हो । मालूम होता था, अधे को अखि मिल गई हैं। कभी कोठे पर जाती थी, कभी नीचे आती थी। सारे घर मे खलबली पड़ गई। तुम्हे वह पत्र अत्यत निराशाजनक जान पड़ता, मेरे लिए वह संजीवन-मंत्र था, आशादीपक था। प्राणेश ने बारातियों की उइंडता पर खेद प्रकट किया था, पर बड़ो के सामने वह ज़बान कैसे खोल सकते थे। फिर जनातियों ने भी बारातियो का जैसा आदर-सत्कार करना चाहिए था, वैसा नहीं किया। अत मे लिखा था-'प्रिये, तुम्हारे दर्शनों की

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