सखियाँ २३७ 'शाम को पहुँच जायेंगे। मेंने देखा स्वामी का चेहरा कुछ उदास हो गया है । वह दस मिनट तक चुपचाप बैठे बाहर की तरफ ताकते रहे । मैंने उन्हें केवल बातों में लगाने ही के लिए यह अनावश्यक प्रश्न पूछा था। पर अब भी जब वह न बोले, तो मैंने फिर न छेडा । पानदान खोलकर पान बनाने लगी। सहसा उन्होंने कहा- चदा एक बात कहूँ? मैंने कहा-हाँ-हाँ शौक से कहिए । उन्होंने सिर झुकाकर शर्माते हुए कहा-मैं जानता कि तुम इतनी रूपवती हो, तो मैं तुमसे विवाह न करता । अच तुम्हें देखकर मुझे मालूम हो रहा है कि मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है । मैं किसी तरह तुम्हारे योग्य न था। मैंने पान का बीड़ा उन्हें देते हुए कहा-ऐसी बाते न कीजिए। आप जैसे हैं, मेरे सर्वस्व हैं। मैं आपकी दासी बनकर अपने भाग्य को धन्य मानती हूँ। दूसरा स्टेशन आ गया । गाड़ी रुकी । स्वामी चले गये। जब-जब गाड़ी रुकती थी, वह आकर दो-चार बातें कर जाते थे। शाम को हम लोग बनारस पहुँच गये । मकान एक गली में है और मेरे घर से बहुत छोटा है । इन कई दिनों में यह भी मालूम हो रहा है कि सासजी स्वभाव की सखी हैं। लेकिन अभी किसी के बारे में कुछ नहीं कह सकती। सभव है, मुझे भ्रम हो रहा हो । फिर लिखू गी। मुझे इसकी चिंता नहीं कि घर कैसा है, आर्थिक दशा कैसी है, सास-ससुर कैसे हैं । मेरी इच्छा है कि यहाँ सभी मुझसे खुश रहें। पतिदेव को मुझसे प्रेम है, यह मेरे लिए काफी है । मुझे और किसी बात की परवा नहीं । तुम्हारे बहनोईजी का मेरे पास बार-बार श्राना सासजी को अच्छा नहीं लगता । वह समझती हैं, कहीं यह सिर न चढ़ जाय । क्यों मुझ- पर उनकी यह अकृपा है, कह नहीं सकती, पर इतना जानती हूँ कि वह अगर इस बात से नाराज होती हैं, तो हमारे ही भले के लिए । वह ऐसी कोई बात क्यों करेंगी जिसमें हमारा हित न हो। अपनी संतान का अहित कोई माता नहीं कर सकती । मुझ ही में कोई बुराई उन्हें नज़र श्राई होगी। दो-चार.
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