पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२६५

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२६६ मानसरोवर रूप से हृदय की प्यास नहीं बुझती, श्रात्मा की तृप्ति नहीं होती। सेवाभाव रखनेवाली रूप-विहीन स्त्री का पति किसी स्त्री के रूप-जाल में फंस जाय, तो बहुत जल्द निकल भागता है, सेवा का चस्का पाया हुआ मन केवल नखरो और चोंचलों पर लट्ट नहीं होता। मगेर मैं तो तुम्हें उपदेश करने बैठ गई, हालांकि तुम मुझसे दो चार महीने बड़ी होगी। क्षमा करो बहन, यह उपदेश नहीं है । ये बाते हम, तुम, सभी जानते हैं, केवल कभी-कभी भूल जाते हैं । मैंने केवल तुम्हें याद दिला दी है। उपदेश मे हृदय नहीं होता, लेकिन मेरा उपदेश मेरे मन की वह व्यथा है, जो तुम्हारी इस नई विपत्ति से जागरित हुई है। अच्छा, अब मेरी रामकहानी सुनो। इस एक महीने मे यहाँ बड़ी-बडी पटनाएँ हो गई। यह तो मै पहले ही लिख चुकी हूँ कि आनंद बाबू और अम्माजी मे कुछ मनमुटाव रहने लगा है । वह आग भीतर-ही-भीतर सुलगती हती थी। दिन मे दो-एक बार मा-बेटे मे चोचे हो जाती थीं। एक दिन मेरी छोटी ननदजी मेरे कमरे से एक पुस्तक उठा ले गई। उन्हें पढ़ने का रोग है। मैंने कमरे में किताब न देखी, तो उनसे पूछा । इस ज़रा-सी बात पर वह भलेमानस बिगड़ गई ओर कहने लगी-तुम तो मुझे चोरो लगती हो । अम्मा ने उन्हीं का पक्ष लिया और मुझे खूब सुनाई। सयोग की बात, अम्माजी मुझे कोसने दे ही रही थीं कि आनद बाबू घर मे आ गये । अम्माजी उन्हे देखते ही और जोर से बकने लगीं-बहू की इतनी मजाल ! यह तूने सिर चढ़ा रखा है, और कोई बात नहीं। पुस्तक क्या उसके बाप की थी। लड़की लाई, तो उसने कौन गुनाह किया। ज़रा भी सब न हुअा, दौड़ो हुई उसके सिर पर जा पहुंची और उसके हाथों से किताब छीनने लगी। बहन, यह स्वीकार करती हूँ कि मुझे पुस्तक के लिए इतनी उतावली न करनी चाहिए थी। ननदजी पढ़ चुकने पर आप ही दे जाती । न भी देती तो उस एक पुस्तक के न पढ़ने से मेरा क्या बिगड़ा जाता था। मगर मेरी शामत कि उनके हाथों से किताब छीनने लगी थी। अगर इस बात पर आनंद बाबू मुझे डाँट बताते, तो मुझे ज़रा भी दुःख न होता। मगर उन्होंने उल्टे मेरा ही पक्ष लिया और त्योरियां चढ़ाकर बोले-किसी की चीज़ कोई बिना पूछे लाये ही क्यों ? यह तो मामूली शिष्टाचार है ।