पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२७

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२६ मानसरोवर हो गया ; पर लाश उठाने कोई चमार न आया, और बाम्हन चमार की लाश कैसे उठाते ! भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है ? कहीं कोई दिखा दे । पंडिताइन ने मुँझलाकर कहा-इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सभों का गला भी नही पकता। पंडित ने कहा-रोने दो चुडैलो, को कब तक रोयेगी। जीता था, तो कोई बात न पूछता था । मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सब की सब श्रा पहुंची। पडिताइन-चमार का रोना मनहूस है । पंडित-हां, बहुत मनहूस । पंडिताइन-अभी से दुर्गध उठने लगी। पडित-चमार था ससुरा कि नहीं। साध-असाध किसी का विचार है इन सबो को। पडिताइन-इन सबो को घिन भी नहीं लगती। पडित-भ्रष्ट हैं सब । रात तो किसी तरह कटी ; मगर सवेरे भी कोई चमार न पाया। चमा- रिने भी रो-पीटकर चली गई । दुर्गध कुछ-कुछ फैलने लगी। पंडितजी ने एक रस्सी निकाली। उसका फदा बनाकर मुरदे के पैर मे डाला, और फदे को खींचकर कस दिया । अभी कुछ-कुछ धु धला था। पडितजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गांव के बाहर घसीट ले गये । वहाँ से पाकर तुरत स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर मे गगाजल छिड़का। उधर दुखी की लाश को खेत मे गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन पर्यंत की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।