पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२५० मानसरोवर समय वह ऐसी मालूम हुई, मानो कौड़ियाला गेंडली मारे बैठा हो, बोला-

  • तुम्हारे लिए कोई अच्छी घड़ी ले लूंगा।'

जी नहीं, माफ कीजिए, श्राप ही अपने लिए दूसरी घड़ी ले लीजिएगा। मुझे तो यही अच्छी लगती है। कलाई पर बांधे रहूँगी। जब जब इस र आँखे पड़ेगी, तुम्हारी याद आयेगी । देखो, तुमने आज तक मुझे फूटी कौड़ी भी कभी नहीं दी । अब इनकार करोगे, तो फिर कोई चीज़ न मागूंगी। देवीजी के कोई चीज़ न मांगने से मुझे किसी विशेष हानि का भय न होना चाहिए था, बल्कि उनके इस विराग का स्वागत करना चाहिए था ; 'पर न जाने क्यो, मैं डर गया। कोई ऐसी युक्ति सोचने लगा कि यह राज़ी हो जाये और घड़ी भी न देनी पड़े। बोला-'घड़ी क्या चीज़ है, तुम्हारे लिए जान हाज़िर है प्रिये ! लामो तुम्हारी कलाई पर बाँध दूं, लेकिन बात यह है कि वक्त का ठीक-ठीक अदाज़ न होने से कभी-कभी दफ्तर पहुंचने में देर हो जाती है और व्यर्थ की फटकार सुननी पड़ती है। घडी तुम्हारी है, किंतु जब तक दूसरी धड़ी न ले लू, इसे मेरे पास रहने दो। मैं बहुत जल्द कोई सस्ते दामों की घडी अपने लिए लूंगा और तुम्हारी घड़ो तुम्हारे पास भेज दूंगा। इसमें तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी।' देवीजी ने अपनी कलाई पर घड़ी बांधते हुए कहा-"राम जाने, तुम बड़े चकमेबाज़ हो, बाते बनाकर काम निकालना चाहते हो । यहाँ ऐसी कच्चो गोलियां नहीं खेली हैं, यहाँ से जाकर दो-चार दिन मे दूसरी घड़ी ले लेना । दो चार दिन ज़रा सबेरे दफ्तर चले जाना । अब मुझे और कुछ कहने का साहस नहीं हुआ। कलाई से घड़ी के जाते ही हृदय पर चिंता का पहाड़ सा बैठ गया। ससुराल में दो दिन रहा, पर उदास और चिंतित । दानू बाबू को क्या जवाब दूंगा, यह प्रश्न किसी गुप्त वेदना की भांति चित्त को ससोसता रहा। ( ३ ) घर पहुँचकर जब मैंने सजल नेत्र होकर दानू बाबू से कहा-'घड़ी तो कहीं खो गई', तो खेद या सहानुभूति का एक शब्द भी मुंह से निकालने के बदले उन्होंने बड़ी निर्दयता ले कहा-"इसी लिए मैं तुम्हें घड़ी न देता था। N