पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३०३

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मानसरोवर कपड़े नहीं बदले नाते । घसिहारो सी सूरत बनी हुई है, कुछ परवाह नहीं। कहाँ तो मुंह अँधेरे उठते थे और चार मील का चक्कर लगा पाते थे, कभी अलसा जाते थे तो देवीजी घुड़किया जमातीं और उन्हे बाहर खदेड़कर द्वार बंद कर लेती। कहाँ अब पाठ बजे तक चारपाई पर पड़े करवटें बदल रहे हैं । उठने का जी नहीं चाहता । खिदमतगार ने हुक्का लाकर रख दिया, दो- चार कश लगा दिये । न लाये, तो गम नहीं। चाय आई, पी ली, न आये तो परवाह नहीं। मित्रो ने बहुत गला दबाया, तो सिनेमा देखने चले गये; लेकिन क्या देखा और क्या सुना, इसकी ख़बर नहीं। कहाँ तो अच्छे-अच्छे सूटो का खन्त था, कोई खुशनुमा डिज़ाइन का कपड़ा था जाय, आप एक -सूट ज़रूर बनवायेगे। वह क्या बनवायेगे, उनके लिए देवीजी बनवायेगी । कहाँ अब वही पुराने-धुराने बदरंग, सिकुड़े-सिकुड़ाये, ढीले-ढाले कपड़े लट- वाये चले जा रहे हैं, जो अब दुचलेपन के कारण उतारे-से लगते हैं और जिन्हे अब किसी तरह सूट नहीं कहा जा सकता। महीनो बाज़ार जाने की नौबत नहीं पाती। अबकी कड़ाके का जाड़ा पड़ा, तो आपने एक रूईदार -नीचा लबादा बनवा लिया और ख़ासे भगतजी बन गये। सिर्फ कटोप की कसर थी। देवीजी होती, तो यह लबादा छीनकर किसी फ़कीर को दे देती ; मगर अब कौन देखनेवाला है। किसे परवाह है, वह क्या पहनते हैं और कैसे रहते हैं। ४५ की उम्र में जो श्रादमी ३५ का लगता था, वह अत्र "५० की उम्र में ७० का लगता है, कमर भी झुक गई है, बाल भी सुफेद हो -गये हैं, दांत भी गायब हो गये। जिसने उन्हें तब देखा हो, आज पहचान भी न सके। मज़ा यह है कि तब वह जिन विषयों पर देवीजी से लड़ा करते थे, वही अब उनकी उपासना के. अग बन गये हैं । मालूम नहीं उनके विचारों में क्राति हो गई है या मृतात्मा ने उनकी आत्मा में लीन होकर भिन्नताओं को मिटा दिया है । देवीजी को विधवा-विवाह से घृणा थी; महाशयजी इसके पक्के समर्थक थे; लेकिन अब आप भी विधवा-विवाह का विरोध करते हैं। आप पहले पच्छिमी या नई सभ्यता के भक्त थे और देवीजी का मजाक उड़ाया करते थे। अब इस सभ्यता की उनसे ज्यादा तीव्र आलोचना शायद ही कोई