स्मृति का पुजारी ३०५. कर सके। इस बार यों ही अंग्रेजों के समय-नियत्रण की चर्चा चज्ञ गई। मैंने कहा-इस विषय में हमें अँग्रेज़ो से सबक लेना चाहिए । बस, आप तड़- पकर उठ बैठे और उन्मत्त स्वर में बोले कभी नहीं, प्रलय तक नहीं । मै इस नियत्रण को स्वार्थ का स्तभ, अहकार का हिमालय और दुर्जनता का सहारा समझता हूँ। एक व्यक्ति मुसीबत का मारा आपके पास आता है, मालूम नहीं, कौन-सी ज़रूरत उसे आपके पास खींच लाई है । लेकिन श्राप फरमाते हैं- मेरे पास समय नहीं । यह उन्हीं लोगों का व्यवहार है, जो धन को मनुष्यता के ऊपर समझते हैं, जिनके लिए जीवन केवल धन है। जो व्यक्ति सहृदय है, वह कभी इस नीति को पसंद न करेगा। हमारी सभ्यता धन को इतना ऊँचा स्थान नहीं देती थी। हम अपने द्वार हमेशा खुले रखते थे। जिसे जब जरूरत हो, हमारे पास आये, हम पूर्ण तन्मयता से उसका वृत्तात सुनेंगे और उसके हर्ष या शोक में शरीक होगे। अच्छी सभ्यता है । जिस सभ्यता की स्पिरिट स्वार्थ हो, वह सभ्यता नहीं है, ससार के लिए, अभिशाप है, समाज के लि र विपत्ति है । इस तरह धर्म के विषय मे भी दपति में काफी वितडा होता रहता था। देवीजी हिंदू धर्म की अनुगामिनी थीं, आप इस्लामी सिद्धातों के कायल थे ; मगर अब आप भी पक्के हिंदू हैं ; बल्कि यों कहिए कि आप मानवधर्मी हो गये हैं ? एक दिन बोले-मेरी कसौटी तो है मानवता ! जिस धर्म मे मानवता को प्रधानता दी गई है, बस, दास हूँ | कोई देवता हो, या नवी, या पैगवर ; अगर वह मानवता के विरुद्ध कुछ कहता है, तो मेरा उसे दूर से सलाम है । इसलाम का मैं इसलिए कायल था कि वह मनुष्यमात्र को एक समझता है, ऊँच-नीच का वहाँ कोई स्थान नहीं है । लेकिन अब मालूम हुआ कि यह समता और भाईपन व्यापक नहीं, केवल इसलाम इसलाम के दायरे तक परिमित है। दूसरे शब्दों में अन्य धर्मों की भांति यह भी गुटबंदी है और इसके सिद्धात केवल उस गुट या समूह को सबल और संगठित बनाने के लिए रचे गये हैं। और जब मैं देखता हूँ कि यहाँ भी जानवरों की कुरबानी शरीयत में दाखिला है और हरेक मुसलमान के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेड़, बकरी, गाय या ऊँट की कुरबानी फर्ज़ बताई गई है, तो मुझे उसे अपौरुषेय होने में सदेह उसी धर्म का
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