सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मानसरोवर घर एक हफ्ते के लिए मैं एक नेवते में चला गया था। इस बीच यह क्या कोलापलट हो गई ! ज़रूर ही कोई न कोई रहस्य है और भला आदमी निकल कितनी दूर गया । दो मील तक कहीं पता नहीं। मैं निराश हो गया, मगर यह महाशय रास्ते में कहाँ रह गये, यहाँ तो किसी से उनकी मुलाकात भी नहीं है जहाँ ठहर गये हों। कुछ चिंता भी हो रही थी। कहीं कुएँ में तो नहीं कूद पड़े ! मै लौटने ही वाला था कि श्राप लौटते हुए नज़र आये। चित्त शांत हुआ । आज तो कैड़ा ही और था। वाल नये फैशन से कटे हुए, मूंछे साफ़, दाढ़ी चिकनी, चेहरा खिला हुअा, चाल में चपलता, सूट पुराना, पर ब्रश किया हुआ और शायद इस्तरी भी की हुई, बूट पर ताजा पालिश । मुसकिराते चले आते थे । मुझे देखते ही लपककर हाथ मिलाया और बोले- आज कई दिन के बाद मिले ! कहीं गये थे क्या ? मैंने अपनी गैरहाजिरी का कारण बताकर कहा-मैं डरता हूँ, आज तुल्हें नज़र न लग जाय । अब मैं नित्य तुम्हारे साथ घूमने पाया करूँगा। आज बहुत दिनों के बाद तुमने अादमी का चोला धारण किया है। झपकर बोले-नहीं भई, मुझे अकेला ही रहने दो। तुम लगोगे दौड़ने और ऊपर से घुड़कियाँ जमाअोगे। मैं अपने हौले-हौले चला जाता हूँ। जब थक जाता हूँ, कहीं बैठे लेता हूँ। मेरा-तुम्हारा क्या साथ । 'यह दशा तो तुम्हारी एक सप्ताह पहले न थी। श्राज तो तुम बिल्कुल अप-टू-डेट हो । इस चाल से तो शायद मैं तुमसे पीछे ही रहूँगा।' 'तुम तो बनाने लगे। मैं कल से तुम्हारे साथ वूमने आऊंगा। मेरा इंतज़ार करना ।' 'नहीं भई, मुझे दिक्क न करो। मैं आजकल बहुत सबेरे उठ जाता हूँ। रात को नींद नहीं आती। सोचता हूँ, लामो टहल ही पाऊँ । तुम मेरे साथ क्यों परेशान होगे। मेरा विस्मय बढ़ता जा रहा था। यह महाशय हमेशा मेरे पैरों पड़ते रहते ये कि मुझे भी साथ ले लिया करो। जब मैंने इनकी मंथरता से हारकर इनका साथ छोड़ दिया, तब इन्हे बड़ा दुःख हुआ। दो-एक बार मुझसे शिकायत भी की-हो भई, अब क्यों साथ दोगे। अभागो का साथ किसी ने दिया है,